तीसरा अध्यायः कर्मयोग-श्रीमद्भगवदगीता-।।15।।-

Started by Atul Kaviraje, November 21, 2025, 08:27:15 PM

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Atul Kaviraje

तीसरा अध्यायः कर्मयोग-श्रीमद्भगवदगीता-

कर्म ब्रह्मोद् भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुदभवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।15।।

1. पहला कड़वा (मतलब: काम का असली सोर्स)

हे अर्जुन, जान लो कि सारा काम,
असल में ब्रह्म से ही पैदा होता है;
यही कुदरत के नियमों का आधार है,
यही जीवन के चक्र का एक लेन-देन है।

[मतलब: हे अर्जुन, जान लो कि सारा काम ब्रह्म से ही पैदा होता है, क्योंकि यह काम कुदरत के नियमों के हिसाब से होता है।]

2. दूसरा कड़वा (मतलब: कुदरत का आधार)

और वह ब्रह्म, जिसका असली रूप,
अक्षर ब्रह्म से आए, वह साँचा है;
अविनाशी परब्रह्म ही असली एनर्जी है,
जिसकी प्रेरणा से यह शुरुआत होती है।

[मतलब: और वह ब्रह्म (प्रकृति/वेद) भी अविनाशी परब्रह्म (परमात्म्य) से आया है। वही परम शक्ति इस सृष्टि का कारण है।]

3. तीसरा कड़वा (मतलब: ईश्वर का हर जगह मौजूद होना)

वही परम आत्मा हर जगह व्याप्त है,
वह हर कण में हमेशा मौजूद है;
वही सर्वव्यापी सिद्धांत, जो शाश्वत सत्य है,
इस दुनिया में कोई दूसरी हलचल नहीं है।

[मतलब: वही परम आत्मा हर जगह व्याप्त है, उसका अस्तित्व हर चीज़ में है। वह सर्वव्यापी है, यही परम सत्य है।]

4. चौथा कड़वा (मतलब: कर्म में ईश्वर की स्थिति)

इसलिए वह ब्रह्म, वह सर्वव्यापी ईश्वर,
यज्ञ में हमेशा मौजूद रहता है;
हर कर्तव्य, निस्वार्थ पूजा,
उसी में उसका असली अधिष्ठान है।

[मतलब: इसलिए, वह सर्वव्यापी परब्रह्म (परम सिद्धांत) हमेशा 'यज्ञ' (यानी कर्तव्य के काम) में मौजूद रहता है। भक्ति के साथ किया गया कर्तव्य ही उनकी सच्ची पूजा है।]

5. पाँचवाँ कड़वा (मतलब: निस्वार्थ कर्म का महत्व)

यज्ञ सिर्फ़ अग्नि में आहुति देना नहीं है,
बिना फल के की गई सेवा, वही सच्ची भक्ति है;
जहाँ फल की उम्मीद खत्म हो जाती है,
वहाँ ही भगवान का अस्तित्व पता चलता है।

[मतलब: 'यज्ञ' का मतलब सिर्फ़ अग्नि में आहुति देना नहीं है, बल्कि बिना फल की आसक्ति के की गई सेवा ही सच्ची भक्ति है। निस्वार्थ कर्म में ही भगवान का अनुभव होता है।]

6. छठा कड़वा (मतलब: जीवन का मकसद)

इसलिए, हे मनुष्य, कर्म मत छोड़ो,
कभी फल के पीछे मत भागो;
कर्म करो, उसका स्वरूप जानकर,
भगवान तुम्हारे करीब हैं।

[मतलब: इसलिए, हे मनुष्य, कर्म मत छोड़ो और फल के पीछे मत भागो। कर्म के इस स्वभाव को जानकर करो, क्योंकि तुम्हारे कर्म में ही ईश्वर निवास करते हैं।]

7. सातवां कड़वा (मतलब: निष्कर्ष)

यही संदेश है, यही सरल कर्म योग है,
तब जीवन में असली धन मिलता है;
रोज़ का कर्तव्य, रोज़ की भक्ति का व्रत,
तब ईश्वर अपने पूरे प्रेम के साथ तुममें निवास करते हैं।

[मतलब: कर्म योग का यही सरल सिद्धांत है, अगर इसका पालन किया जाए, तो जीवन में सच्ची समृद्धि मिलती है। रोज़ अपना कर्तव्य करना ही ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम है।]

🖼� संदेश और संकल्प:

संदेश: हर कर्म, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, ईश्वर के नियम से आता है। इसलिए, निस्वार्थ भाव से अपना कर्तव्य करने का मतलब है सीधे ईश्वर की सेवा करना।
संकल्प: आइए हम अपने सभी कर्तव्य (यज्ञ) ईश्वर को समर्पित करके, फल की आसक्ति के बिना करें।

--अतुल परब
--दिनांक-21.11.2025-शुक्रवार.
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