आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है-1-🔱 🧘‍♂️ ♾️ 🌐 💖 🙏🧘‍♂️ 🔓

Started by Atul Kaviraje, November 30, 2025, 03:07:12 PM

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Atul Kaviraje

SWAMI VIVEKANAND QUOTS-
Quote 1
The soul is a circle whose circumference is nowhere (limitless), but whose centre is in some body. Death is but a change of centre. God is a circle whose circumference is nowhere, and whose centre is everywhere. When we can get out of the limited centre of body, we shall realise God, our true Self.

🔱 स्वामी विवेकानंद की उक्ति पर विस्तृत विवेचनात्मक लेख 🕉�

उक्ति: "आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है (वह अनंत है), परन्तु जिसका केंद्र किसी शरीर में है। मृत्यु केवल केंद्र का परिवर्तन है। ईश्वर वह वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है, और जिसका केंद्र हर जगह है। जब हम शरीर के सीमित केंद्र से बाहर निकल सकते हैं, तभी हम ईश्वर, अपने सच्चे स्वरूप को जानेंगे।"
यह उक्ति वेदांत दर्शन का सार है, जो आत्मा, ईश्वर और जीवन-मृत्यु के संबंध को अत्यंत सरलता और गहराई से समझाती है। यह लेख भक्तिभावपूर्ण, उदाहरणात्मक और १० प्रमुख बिंदुओं (प्रत्येक के ०३ उप-बिंदुओं) में विभाजित है।

१. आत्म्याचे अमर्याद स्वरूप (आत्मा का अनंत स्वरूप) - Soul as Limitless
यह बिंदु बताता है कि जीवात्मा (soul) मूल रूप से अनंत है, पर शरीर के कारण सीमित प्रतीत होती है।

१.१. वर्तुळ आणि परिघ (वृत्त और परिधि): स्वामीजी आत्मा को एक वृत्त कहते हैं जिसका परिघ (circumference) कहीं नहीं है, जिसका अर्थ है कि आत्मा देश, काल और वस्तु की सीमाओं से परे है। यह अनंत, शाश्वत और अविनाशी है।

१.२. देहातील केंद्र (शरीर में केंद्र): यद्यपि आत्मा अनंत है, पर वह जब किसी शरीर को धारण करती है, तो उस शरीर में उसका एक केंद्र (centre) बन जाता है। इसी केंद्र के कारण हमें 'मैं यह शरीर हूँ' ऐसा भ्रम होता है।

१.३. भ्रम आणि सत्य (भ्रम और सत्य): शरीर से जुड़ा यह केंद्र ही अज्ञान या माया है। जिस क्षण हम इस केंद्र को ही 'सब कुछ' मान लेते हैं, हम अपने वास्तविक, अनंत स्वरूप को भूल जाते हैं।

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२. मृत्यू म्हणजे केवळ केंद्राचा बदल (मृत्यु केवल केंद्र का परिवर्तन है) - Death as Change of Centre
मृत्यु को एक भयावह अंत न मानते हुए, इसे एक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में समझाया गया है।

२.१. केंद्राचे विसर्जन (केंद्र का विसर्जन): जब एक शरीर नष्ट होता है, तो वह केंद्र जो उस शरीर से जुड़ा था, वह विसर्जित हो जाता है। मृत्यु यानी उस सीमित केंद्र को त्यागना।

२.२. केंद्राचे संक्रमण (केंद्र का संक्रमण): आत्मा उस केंद्र को त्यागकर, कर्मों के अनुसार, एक नए शरीर में एक नया केंद्र ग्रहण कर लेती है। यह कपड़े बदलने जैसा है। उदाहरण: जैसे हम एक शहर से दूसरे शहर जाने पर अपना पता (केंद्र) बदलते हैं, पर हमारा अस्तित्व वही रहता है।

२.३. अविनाशी आत्मतत्त्व (अविनाशी आत्म-तत्व): मृत्यु केवल शारीरिक केंद्र का परिवर्तन है, आत्मा का नहीं। आत्मा न जन्म लेती है और न मरती है; वह केवल अपने अनुभवों के लिए केंद्र बदलती रहती है।

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३. ईश्वराचे सर्वव्यापी स्वरूप (ईश्वर का सर्वव्यापी स्वरूप) - God as Omnipresent Circle
इस बिंदु में ईश्वर की परिभाषा आत्मा से भी अधिक विस्तृत रूप में दी गई है।

३.१. ईश्वराचा परिघ (ईश्वर की परिधि): ईश्वर भी आत्मा की तरह एक वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है (अनंत)। वह किसी भी सीमा से बंधा नहीं है।

३.२. सर्वत्र केंद्र (केंद्र हर जगह): ईश्वर का सबसे बड़ा भेद यह है कि उसका केंद्र (centre) हर जगह है। वह ब्रह्मांड के हर अणु, कण और हर जीव में केंद्र के रूप में विद्यमान है।

३.३. ब्रह्म आणि विश्व (ब्रह्म और विश्व): ईश्वर इस संपूर्ण विश्व का आधार है। वह सिर्फ बनाने वाला नहीं, बल्कि स्वयं ही यह रचना है। हर वस्तु में उसका केंद्र है, जिससे वह सर्वव्यापी (Omnipresent) कहलाता है।

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४. देह-केंद्राची मर्यादा (शरीर-केंद्र की सीमा) - Limitation of Body-Centre
हमारा शरीर से अत्यधिक जुड़ाव हमें हमारी वास्तविक पहचान जानने से रोकता है।

४.१. 'मी' पणाची आसक्ती ('मैं' पन की आसक्ति): जब हम शरीर के केंद्र में जीते हैं, तो हमारी सारी भावनाएं, विचार और कार्य 'मैं और मेरा' (अहंकार) पर केंद्रित होते हैं।

४.२. दृष्टान्त: विहिरीतील बेडूक (दृष्टांत: कुएँ का मेंढक): उदाहरण: एक कुएँ का मेंढक मानता है कि कुआँ ही पूरी दुनिया है। उसी प्रकार, देह-केंद्र में सीमित आत्मा मानती है कि यह शरीर और संसार ही सत्य है।

४.३. दुःख आणि बंधन (दुःख और बंधन): यह सीमित केंद्र ही दुःख और बंधन का कारण है, क्योंकि शरीर और उससे जुड़ी हर वस्तु परिवर्तनशील (perishable) है।

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५. केंद्रातून बाहेर पडणे (केंद्र से बाहर निकलना) - Getting Out of the Limited Centre
ईश्वर-प्राप्ति के लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता और साधन।

५.१. आत्म-संयम आणि विवेक (आत्म-संयम और विवेक): शरीर के केंद्र से बाहर निकलने का अर्थ है - इंद्रियों और मन पर नियंत्रण रखना (संयम) और नित्य-अनित्य का भेद जानना (विवेक)।

५.२. भक्तीचा आधार (भक्ति का आधार): भक्तिभाव से यह साधना सरल हो जाती है। जब भक्त अपने इष्ट में इतना लीन हो जाता है कि वह अपना शारीरिक 'मैं' भूल जाता है, तो केंद्र स्वतः ही विस्तृत होने लगता है।

५.३. अ-द्वैताची अनुभूती (अद्वैत की अनुभूति): केंद्र से बाहर निकलना यानी द्वैत (मैं और ईश्वर अलग हैं) की भावना को त्यागकर अद्वैत (मैं ही ब्रह्म हूँ) की भावना को स्वीकारना।

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--संकलन
--अतुल परब
--दिनांक-27.11.2025-गुरुवार.
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