* बलात्कार *

Started by कवी-गणेश साळुंखे, September 21, 2014, 04:54:15 PM

Previous topic - Next topic

कवी-गणेश साळुंखे

* बलात्कार *
इज्ज़त-ए-आबरू मेरी सरेआम लुटती रही
और वह खामोशी से तमाशा देखते रहे
उन भेड़ियों के सामने में बेबस चिल्लाती रही
खुदको मर्द कहलाने वाले फिरभी मुझे अनसुना करते रहे
फिर मैंने उन दरिंदों को खुदको सोंप दिया बेजान पडीं रही
काफी देर तक वह मुझे नोचते रहे फिर चले गए
नामर्दों की बस्ती थी सारी ये सोचकर मैं खडी हुईं
हँसकर मैने एक बात कही और वह सर झुकाए सुनते रहे
के आज किसकी लुटी गयी थी इज्जत जो तुम पुतला बनके खामोश रहे
लुटी उन्होंने इज्जत मेरी या सारे समाज की या तुम्हारे मर्दानगी की, अरे लुट गयी आज इज्जत मेरेसाथ सारी दुनिया कि...!
जाओ घर जाकर सो जाओ
जब लुटेगी इज्ज़त-ए-आबरू तुम्हारे घर की तब समझ आएगी
तडप मेरे सिनेकी...!
मैं तो अब खत्म कर लुंगी खुदको
नहीं जीना मुझे नामर्दों और भेड़ियों की बस्ती में
एक भी माई का लाल आगे आया होता तो शायद मैं जी भी लेती...!
लेकिन अब नहीं बस एक करना मेरे मरने के बाद मेरेलिए कोई मोर्चा ना निकालना, कोई आंदोलन ना करना
मरने के बाद कमसेकम मेरे नाम का बलात्कार ना करना...!
कवी-गणेश साळुंखे...!
Mob -7710908264
Mumbai