धर्म

Started by ajeetsrivastav, January 29, 2016, 11:50:38 AM

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ajeetsrivastav

I भाव जो समझे दुखी का
जो हृदय से नर्म हो
सोचे बिना परिणाम के
कर्ता सदा सत्कर्म हो
सबके दुखो से हो दुखी
परमार्थ जिसका धर्म हो
सत्य तो जाना उसी ने
जिसके हृदय में मर्म हो |
जो करे सेवा बड़ों की
सबके लिए सम्मान हो
भूमि व हर धर्म का
जिस के हृदय में मान हो
धन बुद्धि का ना दम्भ जिसको
शुद्ध जिसका ज्ञान हो
देश की सेवा जिसे
प्राणों से प्यारा कर्म हो
सत्य तो जाना उसी ने
जिसके हृदय में मर्म हो |
सेवा निराश्रित दीन की
करता सदा नि:स्वार्थ हो
कब चाह उसको नाम की
जीवन सदा परमार्थ हो
अर्थ भी जिसका समर्पित
दीन के सेवार्थ हो
अन्याय से कुछ यू लड़े
जैसे समर में पार्थ हो
सत्य की रक्षा
जिसका सदा ही धर्म हो
सत्य तो उसने ही जाना
जिसके हृदय में मर्म हो |
जिसके हृदय में छल कपट
अनीती और अधर्म हो
धन मान वैभव के लिए
करता सदा अपकर्म हो
स्वार्थ एवं अर्थसिद्धि
जिसका सदा हठधर्म हो
सत्य को कब जाने वो
नीच जिसके कर्म हो
सत्य तो जाना उसी ने
जिसके हृदय मे मर्म हो
सत्य तो जाना उसी ने
जिसके हृदय मे मर्म हो
   // अजीत हरिहरपुरी  //

madhura

waah. kya najrana pesh kiya hai. Aapki kavita aaj samaj ki jarurat hai.

ajeetsrivastav

आभार आपका