परवश

Started by ajeetsrivastav, February 06, 2016, 09:06:25 AM

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ajeetsrivastav

धिक्कार सदा उस नर पर है
जो पराधीन हो जाता है
पशु सा जीवन जीता जग मे
आत्मसम्मान खो जाता है
जीवन उसका परिचर(नौकर) सा है
जो अधीन हो जाता है
अन्याय सदा सहता रहता
वह कब आवाज उठाता है
निरपराध बिन पाप किये
वह चारन (कैदी) सा बन जात है
जो कर न सका कुछ काम स्वंय
नर जन्म व्यर्थ वह पाता है
यह पराधीनता की बेड़ी
नाहर (शेर) सियार बन जाता है
जीवन भर रहता है दुख मे
सन्ताप हमेशा पाता है
तू न होना कभी परश्रित
जीवन की श्याह मलिनता है
जो परवश होकर रहता है
वह जीवन को कब जीता है
तू चुप क्यू है आवाज ऊठा
अपने हिय मे यह बात बिठा
यह कायरता कुछ अौर नही
बस मन की शक्तिहीनता है
जो ठान ले नर इक बार तो फिर
वह यम से प्राण छीनता है
फिर कौन सा दुश्कर इस जग मे
पाना अपनी अधीनता है
जीवन का सबसे बड़ा कष्ट
तो तेरी पराधीनता है
फिर क्यू इस सुन्दर जग मे
तू कायर जैसे जीता है
परवश तो अपने जीवन भर
विष का कटु प्याला पीता है
लिखा सभी ग्रन्थो मे यह
चाहे  कुरान या गीता है
जो परवश होकर रहता है
वह जीवन को कब जीता है