सिढीयाँ...

Started by शिवाजी सांगळे, March 23, 2016, 11:12:44 AM

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शिवाजी सांगळे

सिढीयाँ...

गीरे तुटे छतको देखकर
मायुस हुआ था मन...
कितनी याँदे, सपने...बिखर गये,
उतारे गेये थे दिवारोंसे!

रस्सी, लट्टू, बहोत से कंचे,
रंगीन पूंछे उन पतंगोकी,
जो रह गयी थी चिपकानेकी...
खजाना, बक्से में...
बस् ईतना ही था मेरा...!

कोने वाली खिडकी
नहीं टुटी थी अब तक, जहां
स्ट्रीट लाईट के उजाले में
बैठा करता था रातों में कभी
किताब लेकर पढने...,

पढते पढते...
विविध भारती सुनता था, वह
ट्रांजिस्टर गुम हुआ है कहीं!
ईन्सानियत कि तरहां!

आधी ही टूटी थी बाल्कनी
शायद, मेरे अतित को ढुढती,
कोई नजरें गडी थी उसपर?
बगल वाली बिल्डींसे...!

दिवांरो का वह मलबा,
कईयों के सपने दबा गया,
सपने, चिंखकर बुलातें होंगे 
उनमें से...
पर किसे सुनाई देते है?

डरावने लगते है, रातमें...
पायदान, उन टुटे सिढीयोंके
सिसकते रहते है...
कदमों कि आहट के लिए...

एहसास बढ गयें हमारे,
नई तकनिक के साथ,
वो गीलापण,
रीश्तों कि गर्मी, नमीं...
उड गयी शायद?

सुना है,
टाँवर बनेगा यहाँ,
हाय फाय, वाय फाय!
फिर कौन किससे बोलेगा?
लिफ्ट आयेगी, तो
सिढीयों पर कौन चलेगा?

© शिवाजी सांगळे 🎭
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