तोड शृंखला रे …

Started by sachinikam, May 19, 2016, 10:19:10 AM

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sachinikam


तोड शृंखला रे ...
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कवी: सचिन निकम. पुणे.
sachinikam@gmail.com
९८९००१६८२५
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तोड शृंखला, तोड शृंखला, तोड शृंखला रे... ।। ध्रु. ।।


अन्यायाची अपमानाची झाली परिसीमा
घालिशी कितीदा स्वत:भोवतीच परिक्रमा
छातीवरती झेलीशी कुठवर वार दुश्मनाचे
सुटले मौन आता फुटले बांध संयमाचे
तोड शृंखला, तोड शृंखला, तोड शृंखला रे... ।। १. ।।


साद देती जनमने प्रतिसाद दे
हुंकार दे नव्याने पुकार दे
फोड गर्जना ठेच दुर्जना
रक्ष सज्जना ये ये ये
तोड शृंखला, तोड शृंखला, तोड शृंखला रे... ।। २. ।।


डोळे उघडुनी, उठ खडसावुनि, सूर्योदय झाला
अचिंत्य शक्ती वापरण्याचा, शुभमुहुर्त आला
अज्ञानाची काढून टाक, डोळ्यांतील चिपडे
झटकुनी टाक मनामनांतील, जुनाट जळमटे
तोड शृंखला, तोड शृंखला, तोड शृंखला रे... ।। ३. ।।