श्रांत दरख़्त

Started by शिवाजी सांगळे, September 03, 2019, 01:19:05 PM

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शिवाजी सांगळे

श्रांत दरख़्त

पतझड़ तो दूर है?
फिर भी पत्तें झड़ने लगें
बे मौसम, शायद
कुछ शाखाएं
कमजोर हो गई है !

जडें तो पहले ही
एकजान हुई थी मिट्टी से
कुछ बिखरी थी इर्दगिर्द
उस पुराने दरख़्त की !

परछाईयाँ भी आजकल
शरीर से दूर फैलाएँ हाथोंसी
नजर आने लगी...
शाम जो ढलने को है !

हाँ, कभी अनजान
भटके हुए परिंदों का
साथ होता है, केवल
कुछही समय तक,
उडने का बल होता है
उनके पंखों में?

प्रकृति निभाती है अपना धर्म
दिन उगतां है, दोपहर, शाम
और रात भी होती है,
दरख्त, साधूओं सा...
ध्यान मग्न अवस्था में
फैलाते हुये
दूर दूर जाती परछाईयाँ
अकेले... अंदर लिए
अतीत का एक तूफान
श्रांत श्रांत

© शिवाजी सांगळे 🦋
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