"बंद " ने केलंय जीवन उदास !"

Started by Atul Kaviraje, May 22, 2021, 01:07:01 PM

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Atul Kaviraje

  मित्रानो , देशाचे  हे  दारुण , विदारक , भयावह  चित्र  आपण  आताच  नाही  तर  फार  पूर्वीपासून  पाहात  आलोय . ही संहारक  परिस्थिती , म्हणजे  युद्ध , रोगांच्या  साथी , जातीय  दंगली , अशी  अनेक  उदाहरणे  देता  येतील ,
की ज्यामुळे  जे  संकट  चहुबाजूनी  कोसळते , ते  थोपविता  येत  नाही , ते  मानवी  शक्तीबाहेरचे  असते . त्यामुळे , हे  रोखण्यासाठी , आर्थिक  उलाढाली  पुन्हा  सुरळीत  सुरु  करण्यासाठी , मानवी  जीवन  सुव्यवस्थित  होण्यासाठी , सरकारला  काही  कठोर  पाऊले  उचलावी  लागतात , सर्वथा  टाळेबंदी  (लाकडाऊन ) , पूर्ण  बंद  पुकारावा  लागतो . काही  दिवसांतच  वरील  प्रमाणे    परिस्थिती  निवळल्यावरच   केलेला  बंद  हा  उठवावा  लागतो . हे  बंद  चे  शस्त्र  कधी  कधी  कुचकामी  ठरते , तर  ते  कधी  कधी  उपयुक्तही  ठरते .

     परंतु, मित्रानो  बंद  हे  सर्वस्वी  हत्यार  आहे  का ?
कारण  कितीतरी  प्रसंगी  हा  बंद  जाहीर  केल्याची , व  बंद  माघारी   घेतल्याची   बरीचशी  उदाहरणे  आपण  सर्वानी  यापूर्वीच  पाहिलेली  आहेत .परंतु परिस्थिती जैसे थे अशीच राहिली, ती काही बदलली नाही, तेव्हा  आजच्या  कोरोनाच्या  सद्य  आणीबाणीच्या  परिस्थितीत  हा  सरकारने   पुकारलेला  बंद  कितपत  यशस्वी  होतो , हे  काळच  ठरवेल . असो .

     या  घोषित  बंद  चे  मानवी  जीवनावर  काय  पडसाद  उमटतात   त्यावरती  एक  जिवंत , वास्तव  कविता  ऐकुया , कवितेचे  शीर्षक  आहे  - "बंद  ने  केलाय  जीवन  उदास  ".

                    बंद  (लौकडाऊन ) वर  कविता
                   "बंद " ने  केलंय  जीवन  उदास  !"
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     घेतलंय  चैतन्य  हिरावून  अंतर -बाह्य
     रस्ते  झालेत  सारे  भकास
     पक्ष्यानीही  केलाय  चिव -चिवाट  बंद ,
     "बंद "ने  केलंय  जीवन  उदास .

     नाही  कडकडाट , नाही  गडगडाट
     नाही  धडधडाट , नाही  खडखडाट
     नाही  मुलांचे  कुठे  बागडणे ,
     नाही  शेजाऱ्याचे  एकमेकांशी  भांडणे .

     वाऱ्यानेही  वाहणे  केलंय  बंद
     सळसळ पानांची   केव्हाच  थांबलीय 
     बेजान  कलेवर  डोळ्यांनी  पाहात ,
     जणू   काळ-पाऊले  इथेच  थांबलीत .

     स्रोत  जीवनाचा  गमावलाय  "बंद "ने
     सूर  जीवनाचा  हरवलाय  कुठेतरी
     श्वास  आहे  सुरु  जरी ,
     स्पंदन  भासतेय  निष्प्राण  तरी .

     या  "बंद "ची  काय  परिणती  ?
     चराचराची  हळूहळू  मंदावतेय  गती
     झालीय  साऱ्यांचीच  कुंठित  मती ,
     भरून  निघेल  का , कधी  ही  क्षती  ?

-----श्री अतुल एस परब
-----शनिवार-22.05.2021.