मला आवडलेल्या चारोळ्या-चारोळी क्रमांक-55

Started by Atul Kaviraje, August 22, 2022, 01:11:24 AM

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Atul Kaviraje

                                  मला आवडलेल्या चारोळ्या
                                     चारोळी क्रमांक-55
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मित्र/मैत्रिणींनो,

     --नवं-चारोळीकाराच्या  चारोळीतील  नायक  आज  एकटाच  संध्याकाळच्या  वेळी  समुद्राच्या  किनारी  आलाय . त्याला  सागर ,समुद्र  खूप  आवडतो . विशेषकरून  संध्याकाळच्या  वेळी , सांजकाली  शांत  अश्या  त्या  रम्य  ठिकाणी  त्याचे  मन  खूप  रमते. रोजच्या  धकाधकीच्या  जीवनात , धावपळीच्या , पळापळीच्या  आयुष्यात  त्याला  हे  संध्याकाळचे  समुद्र  किनाऱ्यावरले  काही  क्षण  एक  ऊर्जा  देऊन  जातात , मनास  शांत  करतात , जीवास  राहत  देतात . भरकटलेले  मन  पुन्हा  जागेवर  आणण्यास , त्यास  परम-शांती  देण्याचे  फक्त  एक  आणि  एकचं  ठिकाण  म्हणजे  हा  समुद्र -किनारा . आता  त्याला  ही  एक  सवयच  जडली  आहे . त्याचा  जीव  येथेच  रमतो .

     त्याचे  त्याच्या  प्रियेवर  खूप  प्रेम  आहे . अश्या  या  सायंकाळच्या  शांत-प्रशांत  वेळी  तो  तिची  नेहमी-प्रमाणे  वाट  पहात  आहे . त्याला  ती  रोजच  नियमितपणे , नेहमीप्रमाणे  भेटण्यास  येते . त्याचा  वेळ  असाच  मग  मजेत  जातो  , तिच्या  हातात  हात  गुंफून,  सुखी  संसाराची  स्वप्ने  रंगवता-रंगवता , खोल  समुद्रात  क्षितिजाकडे  टक  लावून  पाहणे , आणि  समुद्र-किनारी  धडकणाऱ्या  त्या  मंद  लाटांचा  आवाज -गाज  ऐकता-ऐकताच  त्याची  ही  संध्याकाळ  केव्हाच  संपून  जाते, सरत जाते . की  पुन्हा  दुसऱ्या  दिवशीही  हेच  अनुकरण . अशी  बरीच  वर्षे  लोटतात , लोटली  आहेत . आजही  तेच  घडतंय . उद्याही   कदाचित  तेच  घडेल . ती , तो  समुद्र -किनारा  आणि  ती  लाट  यातच त्याची संध्याकाळ रमतेय,  त्याचा  दिवस  पूर्ण  होतोय .

     पुढे  हा  नवं-चारोळीकार  म्हणतोय , की  या  प्रेमीचा  हा  रोजचा  नेम  कधीही  चुकलेला  नाही . तो  रोजच  प्रत्येक सायंकाळी  असाच  समुद्र-किनारी  येतो  आणि  लाटांचा  आवाज  ऐकत  आपल्या  प्रियेची  वाट  पहात  असतो . केव्हा  केव्हा  असंही  घडत , की  त्याची  ही  प्रिया  काही  कारणास्तव  त्या  दिवशी  येऊ  शकत  नाही , बहुधा  तिला  ते  जमत  नसावे . मग  अश्यावेळी  सवयीचा  गुलाम  झालेला  हा  तिचा  प्रियकर , बिलकुल  नाराज  होत  नाही . तो  तिची  प्रतीक्षा  करीत  राहतो , तिची  वाट  पहात  बसतो . पण  बराच  वेळ  झाला  तरी  ती  येत  नाही . मग  आता  फक्त  उरतो  तो समुद्र  किनारा  आणि  ती  लाट . आता  तो  चक्क  त्या  समुद्राशी , त्या  लाटेशी  संवाद  साधू  लागतो . त्या  घन-गंभीर  लाटेची  गाज , समुद्रातून  दूरवरून  येणारी  लाट  मग  त्याला  आपलीशी  वाटू  लागते . तो  त्या  लाटेस  आपले  सुख -दुःख  सांगत  बसतो. बराच वेळ मग तो एकटाच बोलत राहतो. सूर्य  अस्तास  गेलेला  असतो . संध्या  -छाया  आपला  मंद-धुंद-कृष्ण  प्रकाश  पसरवीत  अवतीर्ण  होतात . तरीही  त्याला  त्याचे  भान  नसते . तो  फक्त  आणि  फक्त  त्या  समुद्रात , आणि  त्या  लाटेत  गुंतून  असतो . आता  त्याला  आपल्या  प्रियेचेही  भान  नसते . आता  तो  चक्क  या  हव्या -हव्याश्या  निसर्गाशी  एकरूप  झालेला  असतो . जगाचे  भान  तो  विसरलेला  असतो . 

शांत संध्याकाळी समुद्रकिनारी
तुझी वाट बघत मी बसलो होतो
दूर देशावरून येणाऱ्या लाटेशी
एकटाच बोलत बसलो होतो.
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--नवं-चारोळीकार
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                     (साभार आणि सौजन्य-संदर्भ-महाराष्ट्रीयन.इन)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-22.08.2022-सोमवार.