मेरा सामान-कविता-विरासत

Started by Atul Kaviraje, September 23, 2022, 10:16:56 PM

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Atul Kaviraje

                                        "मेरा सामान"
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मित्रो,

     आज पढते है, श्री गौरव सोलंकी, इनके "मेरा सामान" इस ब्लॉग की एक कविता. इस कविताका शीर्षक है-"विरासत"

                                          विरासत--
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हम बना रहे हैं
एक शहर,
जिसकी हर दीवार के
उखड़े पलस्तर के ऊपर
हमने पोत दिया है
झूठे उड़नखटोलों का चमकीला पेंट,
जहाँ हमने
दुपहरी को सुबह
और सुबह को आधी रात कह दिया है,
और जिसकी शामों-रातों में
हम अपने आईने तोड़कर
झूमते हैं,
हमने सब ऊंचे पेड़ों पर चढ़कर
चूस लिया है उनका खून
और काट फेंकी हैं
पेड़ों की
या अपनी ही जड़ें,
किस्मत बदलने को
हमने अपने नाम के अक्षर
उलट पलट दिए हैं,
अलग अलग मौकों पर
अपनी पहचान की तरह,
हमने काट फेंकी है
अपनी माँ की जबान बेरहमी से
और अक्सर
कुचलते हैं उस जबान को
अमरीकी जूतों तले
क्योंकि उसकी माँग नहीं है बाज़ार में,
धुंए से काली हुई गलियाँ
फेयर एंड लवली लीपकर
खूबसूरत बना दी गई हैं
और अपनी बेटियों के कपड़े छीनकर
हमने उन्हें
उन गलियों में बेच दिया है,
हमने 'उच्छृंखलता' को
शब्दकोश में 'स्वतंत्रता' लिख दिया है,
मॉल बनाने के लिए
चार झापड़ मारकर
गिरा दी हैं हमने कमजोर सपनों की रेहड़ियां,
आज हम सब आज़ाद हैं,
तोड़ डाली हैं हमने
सब पुरानी 'कंज़र्वेटिव' बेड़ियां,
हमने एक और पीढ़ी के
गीतों पर प्रतिबन्ध लगाकर
उन्हें सिखा दिए हैं
आटे-दाल-तेल के मुहावरे,
हमने एक और पीढ़ी बना दी है
उपनिवेशवाद की,
ग़ुलामी की,
नपुंसक युवाओं की,
नौकरों की।
एक घने कोहरे की सुबह
मेरे मजबूर पिता ने
मेरी मासूम मुट्ठी खोलकर
थमा दिया था एक ऐसा ही शहर,
एक ऐसी ही सुबह
मैं भी अपने निर्दोष बेटे को
सौंप जाऊंगा
खूबसूरत गलियों का
एक नाचता हुआ शहर
वैसा ही...

--गौरव सोलंकी
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               (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-गौरव सोलंकी.इन.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-23.09.2022-शुक्रवार.