विश्वमोहन उवाच-मानस की प्रस्तावना--क्रमांक-2

Started by Atul Kaviraje, September 25, 2022, 09:38:30 PM

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Atul Kaviraje

                                    "विश्वमोहन उवाच"
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मित्रो,

     आज पढते है, विश्वमोहन इनके "विश्वमोहन उवाच" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख का शीर्षक है-"मानस की प्रस्तावना"

                             मानस की प्रस्तावना--क्रमांक-2--
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     छठा श्लोक : जिनकी माया से वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि, देवता और असुर हैं , जिनकी सत्ता  से यह समस्त संसार रस्से के साँप होने सा भ्रम-सत्य प्रतीत होता है , जिसके चरण ही इस संसार सागर से पार होने की इच्छावालों के लिए एकमात्र नौका है, उन समस्त कारणों से परे राम कहलानेवाले भगवान श्री हरि की मैं वन्दना करता हूँ.

     पाँचवा श्लोक : उत्पत्ति, स्थिति(पालन) और संहार के कारण, क्लेश का हरण करने वाली, सबका कल्याण करनेवाली श्री रामचन्द्रजी की प्रिया श्री सीताजी को मैं प्रणाम करता हूँ .

     चौथा श्लोक : श्री सीतारामजी के गुणसमूह रुपी पवित्र वन में विहार करने वाले विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कवीश्वर वाल्मिकी और कपीश्वर श्री हनुमानजी की मैं वन्दना करता हूँ .

     तीसरा श्लोक : बोधमय, नित्य, शंकररुपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनकी शरण में आकर वक्र चन्द्रमा भी सर्वत्र पूजनीय हो जाता है.

     दूसरा श्लोक : श्रद्धा और विश्वास के स्वरुप श्री भवानी और श्री शंकरजी की मैं वन्दना करता हूँ , जिनके बिना सिद्धिजन अपने अंतःकरण में स्थित परमेश्वर का दर्शन नहीं कर पाते.

     अब कुछ बिम्बों पर विचार करें . एक ओर 'जिसकी माया' , 'जिसकी सत्ता', 'जिनके चरण', 'एकमात्र नौका', 'समस्त कारणों से परे', 'उत्पति,स्थिति एवं संहार के कारण', 'बोधमय', 'नित्य', 'श्रद्धा और विश्वास के स्वरुप', आदि आदि . दूसरी ओर 'विश्व, देवता, असुर , रस्से के साँप होने सा भ्रम-सत्य, भव-सागर'  आदि आदि. और सबसे महत्वपूर्ण ईश्वरीय आभा से परिपूर्ण पवित्र कानन में विचरण करने वाले 'विशुद्ध विज्ञान स्वरुप'.. .
उपरोक्त  बिम्बों के आलोक में तुलसी ने अपनी मानस महायात्रा के प्रवेश-द्वार पर ही अपने तीर्थ विवरण की पट्टी लटका दी है. क्या है यह संसार-सागर ? ये ब्रह्मादि, मनुष्य, देवता, किसकी माया के मार्त्तण्ड में तप रहे हैं? किसकी सत्ता की साया इनके संशय का संत्रास है? वह अपरम्पार परमात्मा सभी कारणों के पार है. उसीकी आभा से इस चराचर जगत का कण-कण आभासित है . उसकी भक्ति रसधारा में अपना सर्वस्व क्षय कर उसमें लय हो जाना ही मानस का गंतव्य तीर्थ है.

--विश्वमोहन
(Saturday, 20 December 2014)
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             (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-विश्वमोहन उवाच.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-25.09.2022-रविवार.