फ़ुरसतिया-साल के आखिरी माह का लेखाजोखा--क्रमांक-3

Started by Atul Kaviraje, October 05, 2022, 10:07:19 PM

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Atul Kaviraje

                                      "फ़ुरसतिया"
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मित्रो,

     आज पढते है, "फ़ुरसतिया" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख का शीर्षक है- "साल के आखिरी माह का लेखाजोखा"

                  साल के आखिरी माह का लेखाजोखा--क्रमांक-3--
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     पंकज भाई, ब्लागमंडल के जूरी ,बहुत दिन तक नाच-नाच के दुनिया हिलाते रहे.अब जब हिलना बंद हुआ तो टूटे पत्तेसे होते हुये जहाज के पंछी हो गये.वैसे जहाज के पंछी वाली बात आत्मालाप (अपने से बातचीत)है:-

मेरो मन अनत कहां सुख पावै,
जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवै

     पर यहां बात दो लोगों से हो रही है.इसके लिये सूरदास जी कहते हैं:-

उधौ मोहि ब्रज बिसरत नहीं,
हंससुता(यमुना) की सुंदर कगरी (किनारा)अरु कुंजन की छांही.

     बिसरत नाहीं में एक सुविधा भी है कि उड़ने की मेहनत से बचाव हो जायेगा.याद आने में कोई मेहनत थोड़ी लगती है.

     मुझे समझ नहीं आता कि माननीय जूरी महाशय बार-बारनामांकन काहे मांग रहे हैं-इंडीब्लागी अवार्ड के लिये.भाई आपको जूरी बनाया गया है.आपको हिंदी के सारे चिट्ठाकारों के बारे में पता है .फिर यह 'बुलौवा नामांकन' का किसलिये आर्यपुत्र?ये बात कुछ हजम नहीं हुयी.स्वदेस फिल्म के लिये देवाशीष की टिप्पणी काबिलेगौर है:-

     खेद की बात है कि यह फिल्म पुरस्कार पाने और ओवरसीज़ बाज़ार के लिए ही बनाइ गई, नाम भी रखा "स्वदेस" स्वदेश नहीं। हम लोग गोरी चमड़ी और गोरों की बनाई हर चीज़, जैसे आस्कर, के इतने कायल हैं और फिल्मफेयर जैसे पुराने घरेलू पुरस्कारों को जूती पर रखते हैं। लॉबिंग आस्कर के लिए भी कम नहीं होती, पर घरेलू पुरस्कारों पर अक्सर बेईमानी का आरोप लगता है।

     पंकज को बधाई कि अनुगूंज के लिये सबसे सटीक बात वो रख पाये -बमार्फत शर्माजी.

     यह महीनाअक्षरग्राम के पुनर्जन्म का रहा.फिर पंकज गायब हो गये कुछ दिन के लिये. इसके बाद हावी रहा मानसिक लुच्चापन काफी दिन तक अक्षरग्राम में.पता नहीं अभी तक पंकज आये कि उनका भूत ही कर रहा हैलिखा पढ़ी!अक्षरग्राम की पहुंच के जलवे दिखे.अतुल खोज रहे घर किरायेदार के लिये.पार्किंग लाट की तरह उन्होंने देवाशीष की गाड़ी निकलने का इंतजार नहीं किया.अपनी गाड़ी घुसा दी अनुगूंज की.ये कुछ ऐसा ही है कि बड़ी बिटिया का होने वाला पति परदेश से आ रहा हो .इंतजार के फेर में न पड़कर कई बेटियों का बाप उचित वर मिलने पर छोटी बेटी के हाथ पीले कर देता .कहीं हाथ में आया हुआ लड़का न निकल जाये.बड़ी कि तय तो होही गयी है.बस करने की बात है.हो जायेगी.

     हिंदी के आदि चिट्ठाकार का नौ दो ग्यारह मुझे टेलीग्रामिया चिट्ठा लगता है.कम से कम शब्द.थोड़ा कहा बहुत समझना वाला अंदाज.नयी जानकारी देते रहने के लिहाज से यह सूचना चिट्ठा भी है.देवनागरी,आस्ट्रेलिया की जानकारी के बाद विजयठाकुर का हाथ मांग लिया.फिर प्रजाभारत,फोन सेवा,मराठी व महावीर शर्मा की कविताओं की जानकारी देने के बाद जुआ खेलने के तरीके बताये.गाना सुना,क्रिकेट खेला फिर परिचय सुदूर जापान में हिन्दी में लिखने वाले मत्शु का दिया.'एक दिन में एक शेर' का परिचय जिस शेर से हुआ वह बार-बार इसे देखने को बाध्य करता है:-

ये धुआँ कम हो तो पहचान हो मुमकिन, शायद
यूँ तो वो जलता हुआ, अपना ही घर लगता है

--विजय ठाकुर
Posted by-अनूप शुक्ल
(Thursday, December 30, 2004)
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               (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-फ़ुरसतिया.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-05.10.2022-बुधवार.