फ़ुरसतिया-साल के आखिरी माह का लेखाजोखा--क्रमांक-4

Started by Atul Kaviraje, October 05, 2022, 10:08:55 PM

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Atul Kaviraje

                                     "फ़ुरसतिया"
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मित्रो,

     आज पढते है, "फ़ुरसतिया" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख का शीर्षक है- "साल के आखिरी माह का लेखाजोखा"

                  साल के आखिरी माह का लेखाजोखा--क्रमांक-4--
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      प्रेमचंद की कहानियों के बाद सुनामी तूफान तथा फिर स्वामीजी के हिंदी टूल की सूचना.कुल मिलाकर यह गूगलचिट्ठा है जो अपने आप जानकारियां देता रहता है

     स्वामी जी हिन्दी ब्लाग की नवीनतम सनसनी हैं.हिंदी लिखने में इन्हें मजा आया तो बना डाला टूल.अब इसकी पड़ताल ज्ञानी लोगकरें.

     रमता जोगी बहता पानी ,इनको कौन सके विरमाय.कुछ यही अंदाजरहता है रवि रतलामी के लेखन का.सामाजिक स्थितियों से जुड़े लेख.प्रमाण के लिये अखबार की कतरन तथा विषयानुरूप गज़ल.इतनी जल्दी विषय के अनुरूप गज़ल लिख लेना काबिले तारीफ काम है.तकनीकी जानकारी वाले लेख के साथ जब वे याहू कहकर उछलते हैं तो अंदाजा लगता है कि गांगुली ने कैसे नेटवेस्ट सीरीज में जीतने के बाद अपनी शर्ट उछाली होगी.नेताओं के भाषणप्रेम के बारे में कहना है रवि का:-

     नेताओं का कोई काम भाषण के बगैर हो सकता है क्या? वे खांसते छींकते भी हैं तो भाषणों में. वे खाते पीते ओढ़ते बिछाते सब काम भाषणों में करते हैं. कोई उद्घाटन होगा, कोई समारोह होगा तो कार्यक्रम का प्रारंभ भाषणों से होगा और अंत भी भाषणों से होगा. संसद के भीतर और बाहर तमाम नेता भाषण देते नजर आते हैं, और उससे ज्यादा इस बात पर चिंतित रहते हैं कि उनकी बकवास को हर कोई ध्यान से सुने

     आशीष ने अपने माध्यम से शिक्षा जगत का जायजा लिया.आई.आई.टी.से लेकर प्राइमरी शिक्षा और कोचिंग के संजाल की पड़ताल की:-

     खुद की प्राथमिक शिक्षा के अनुभव से, छात्रों को देख कर और उनसे सुनकर ये लगता है कि हमारा समाज जिस तरह से बच्चों को पढ़ाता है ये जिस तरह से स्कूलों में बच्चों को तालीम दी जाती है उसमें कहीं न कहीं कुछ बहुत बड़ी कमी है। बच्चों पर बस्ते का इतना बड़ा बोझ है कि उनका बचपन बरबाद हो जाता है। जे ई ई और इसके जैसी तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं ने आज शैक्षिक व्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी है क्योंकि उसमें स्कूल या विद्यालय के योगदान का कोई स्थान नहीं है और साथ ही साथ उसने बचपन से लेकर आजतक जो कुछ सीखा उसका कुछ खास मतलब नहीं है अगर वो बच्चा उन मात्र नौ घंटों के इम्तहान में अच्छा नहीं कर पाता है। साथ ही साथ इस चीज कि बहुत बड़ा महत्व है कि उसकी शिक्षा का माध्यम क्या रहा है? इस तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं की वजह से आज विद्यालयों की खुद की ज़िम्मेदारी कुछ नहीं रह गयी है, और ऊपर से जो कोचिंग और ब्रिलियंट या अग्रवाल जैसे संस्थानों की बाढ़ आयी है उसने तो समस्या को और भी कुरूप कर दिया है। शिक्षा की आढ़ में कुछ पब्लिक व कान्वेंट स्कूल क्या पढ़ा रहे हैं ये किसी नहीं छुपा है। और इन कोचिंगों के माध्यम से आने वाले छात्रों में एक वैज्ञानिक या अच्छा इंजीनियर बनने की कितनी इच्छा होती है वो आप समझ सकते हैं। पहला लक्ष्य है नौकरी कैसे भी मिलना वरना समाज क्या कहेगा। दूसरी बात जो बच्चे आते हैं उनमें ज्यादातर मध्यम वर्ग या उच्च मध्यम वर्ग से ही आते हैं जिनका कि सपना ही होता है या तो अमेरिका जाना या भारत में ही अपना एक अमेरिका बनाना और यहां की गरीब जनता के ऊपर पैसे की राज करना जैसा कि अमेरिका भी कर रहा है। स्कूलों में बच्चों को जितना ध्यान अंग्रेज़ी सिखाने के ऊपर दिया जाता है अगर उतना ही ध्यान बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा को उजागर करने में लगाया जाये तो आज हमारे समाज में विचारकों, वैज्ञानिकों, कलाकारों इत्यादि की कमी नहीं होगी। साथ ही बच्चे भी इस बात से खुश रहेंगे कि कम से कम वे वो काम कर रहे हैं जिसमें कि उनकी दिलचस्पी है। इसमें स्कूल के साथ साथ समाज व मातापिता का भी योगदान है। मातापिता को भी बच्चों को उसी दिशा में प्रेरित करना चाहिये कि जिसमें उसका झुकाव हो व अनावश्यक तुलनाओं से बचना चाहिये। हम चाहें कितने भी आई आई टी या आई आई एम बना लें केलिन जब तक स्कूली शिक्षा का उद्धार नहीं होगा तब तक किसी का कोई मतलब नहीं है।

--विजय ठाकुर
Posted by-अनूप शुक्ल
(Thursday, December 30, 2004)
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               (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-फ़ुरसतिया.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-05.10.2022-बुधवार.