साहित्यशिल्पी-भानगढ के भूतिया खंडहर - हमारे अनुभव [यात्रा वृतांत] – क्रमांक--2

Started by Atul Kaviraje, November 09, 2022, 09:32:08 PM

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Atul Kaviraje

                                      "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "भानगढ के भूतिया खंडहर - हमारे अनुभव [यात्रा वृतांत]" 

        भानगढ के भूतिया खंडहर - हमारे अनुभव [यात्रा वृतांत] – क्रमांक--2--
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     कुछ दिनों पूर्व चर्चा के दौरान एक मित्र नें इस स्थल का जिक्र किया था और अपने अनुभव सुनायें थे। रात देर तक रुकने के दौरान उन्हे अजीब अजीब सी आवाजे, चीख-चिल्लाहट के स्वर सुनाई दिये थे। उन्होंने पायल की आवाज सुनी थी और फिर महल से अपने मित्रों के साथ उन्होंने भागना ही उचित समझा था। कहानी सुनने के दौरान भी मैं हँस पडा था और उसे कोरी गप्प करार दे कर हटा था। तथापि अवचेतन में इस स्थल को देखने की इच्छा तो हो ही गयी थी। एसा नहीं है कि केवल भानगढ ही वीराना है, हमारी गाडी जैसे जैसे उस ओर बढ़ने लगी वनाच्छादित अरावली के नयनाभिराम नजारे ही बिखरे हुए थे यदा कदा ही आबादी दिखायी पड़ती। यकीन करना मुश्किल है कि किसी समय शक्तिशाली शासकों की राजधानियाँ इन वीरानों को आबाद किया करती थीं।

     इतिहास के पन्नों को पलटे तो कुछ बिखरी हुई जानकारियों में भानगढ नजर आता है। यह नगर 1573 ई. में राजा भगवंत दास द्वारा अस्तित्व में लाया गया किंतु इसकी प्रतिष्ठा अथवा सही मायनों में स्थापना राजा माधो सिंह के साथ अधिक जुडी है। राजा माधो सिंह महाराजा मानसिंह –प्रथम {मुगल सम्राट अकबर के प्रमुख दरबारी तथा आम्बेर के महाराजा} के द्वतिय एवं कनिष्ठ पुत्र थे। माधोसिंह नें अपने पिता और भाई के साथ अनेक महान युद्धों में हिस्सा लिया था। भानगढ के अगले शासक राजा माधो सिंह के पुत्र छत्र सिंह थे। उनकी हिंसक मौत के बाद यह नगर धीरे धीरे गुमनाम और वीरान होता चला गया। विवरण यह भी मिलता है कि मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के बाद से ही मुगल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया था। इसी का लाभ उठा कर जय सिंह द्वितीय नें 1720 में भानगढ पर आक्रमण किया और उसे अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसके पश्चात तो इस नगर पर जैसे किसी की बुरी नजर लग गयी थी। नगर खाली होता गया, 1783 में भीषण अकाल पड़ा और उसके पश्चात वीरान हुआ नगर फिर कभी नहीं बसाया जा सका।

     लेकिन इतिहास के पन्ने हमेशा पूरा सच नहीं होते। अगर एसा होता तो खुद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को भानगढ की सीमा के बाहर यह सूचनापट्ट नहीं लगाना पड़ता जिसपर स्पष्ट लिखा है – भानगढ की सीमा में सूर्योदय के पहले तथा सूर्यास्त के पश्चात प्रवेश करना वर्जित है। वस्तुत: भानगढ अपने भीतर इतिहास से निकला जो डर सजोये है वह एक भरे पूरे शहर की तबाही से उपजा है।

     सरिस्का से भानगढ की ओर बढते हुए हम दूर से ही पहाड़ पर पत्थरों से बनी छतरी देख पा रहे थे और गाईड उसी उँचाई की ओर इशारा कर रहा था जिसकी तलहटी में यह शहर बसा रहा होगा।

     हमारी जिज्ञासा को पंख मिले हुए थे और हम मानो उड कर पहुँचना चाहते थे। श्रीमति जी का गंभीर चेहरा देख कर मैने मजाक भी किया कि "तुम्हे कैसा डर भला मायके से भी कोई घबराता है?" हमने शाम चार बजे भानगढ पहुँचने की योजना बनायी थी। इसका कारण था ढलती हुई शाम में भानगढ के माहौल का अनुभव लेना। हम मुख्यद्वार से भीतर प्रवेश करते ही ठिठक गये – आह! भग्न किंतु भव्य नगर। अवशेषों में किसी समय रहे बेहद सुनियोजित साम्राज्य की परछाई है जिसका अहसास भी है भानगढ की हवाओं में। यत्र तत्र बिखरे अर्धभग्न भवन और स्तंभावशेष यह जाहिर करते हैं कि एक समय यह अत्यंत विस्तृत परिसर रहा होगा।

     मुख्यद्वार से पीछे मुड कर देखा तो एक विशाल छतरी नुमा संरचना दीख पडी। गाईड नें उस ओर इशारा कर बताया कि नगर के गणमान्य कभी वहाँ नर्तकियों की पदथाप पर मदहोश हुआ करते थे; आज बस एक चुप्पी है जो नाचती है।...।

(क्रमशः)--

--राजीव रंजन प्रसाद
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-09.11.2022-बुधवार.