इयत्ता.इन-गोस्वामी बिंदु जी की संगीतमय भक्ति-1

Started by Atul Kaviraje, November 12, 2022, 10:14:55 PM

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Atul Kaviraje

                                     "इयत्ता.इन"
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मित्रो,

     आज पढते है, "इयत्ता.इन" इस ब्लॉग का एक लेख . इस लेख का शीर्षक है- "गोस्वामी बिंदु जी की संगीतमय भक्ति"

                     गोस्वामी बिंदु जी की संगीतमय भक्ति--1--
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     इसे हिंदी साहित्य एवं संगीत का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि भक्तिकाल के बाद आए भक्तिकाव्य को साहित्य में स्थान नहीं दिया गया। कुछ तो सामयिक आवश्यकताओं के अनुसार वैचारिक बदलाव, कुछ नई विचारधारा का आगमन तो कुछ भक्ति साहित्य को पिछड़ा एवं अंधविश्वास मानने वाली पाश्चात्य सोच। माना कि उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी की परिस्थितियाँ कुछ और थीं, विदेशी सत्ता, भूख, अत्याचार और अंधविश्वासों से छुटकारा पाने की जिद थी और उसी के अनुसार भक्ति से इतर साहित्य की आवश्यकता थी, फिर भी यदि कुछ अलग और स्तरीय लिखा जा रहा था तो उसे उपेक्षित भी नहीं किया जाना चाहिए था। हम कितने भी आगे बढ़ जाएँ, कितने भी वैज्ञानिक सोच के हो जाएँ, लेकिन हम कबीर, रैदास, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई और रसखान को तो उपेक्षित नहीं कर सकते। बीच में इस परंपरा में अच्छे-बुरे सब आए होंगे, किंतु एक बार हम गोस्वामी बिंदु जी का भक्ति साहित्य, उसका भाव एवं संगीत देख लेते तो उन्हें इसी परंपरा में बैठाते, भले ही उनकी उत्पादकता उपरोक्त संत कवियों से बहुत ही कम रही हो।

     बिंदु जी भले ही साहित्य में सम्मिलित न किए गए हों, किसी भी पाठ्यक्रम में उनको किंचित स्थान नहीं मिला हो, किंतु वे आज भी भक्ति संगीत में रस लेने वालों के लिए आनंद और मधुरता के एक बड़े स्रोत हैं। देशभर के तमाम बड़े भजन गायक गोस्वामी बिंदु जी के पदों और गज़लों को अपनी गायकी का हिस्सा बनाते ही हैं, हिंदीभाषी प्रदेशों की भजन मंडलियाँ और कीर्तन गायक भी उनके भक्तिगीतों के बिना नहीं चल पाते। सच तो यह है कि गोस्वामी बिंदु जी भारतीय मनीषा और संत परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। उनके पद और भक्तिमय गज़लें गंभीर और अलग भाव से ओत-प्रोत हैं। उनका भक्ति साहित्य कुछ उसी प्रकार के शास्त्रीय संगीत से सज्जित है जैसा कि भक्तिकाल के संत कवियों का था।

                    गोस्वामी बिन्दु जी--

     भारतीय संत परंपरा के कवियों के काव्य में जब हम संगीत पर गहरी दृष्टि डालते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है कि उनमें संगीत का इतना गहरा ज्ञान था। गोस्वामी तुलसीदास के पद 'ठुमुकि चलत रामचंद्र बाजत पैजनियाँ' को जब हम लता मंगेशकर, अनूप जलोटा या किसी ऐसे ही सिद्ध गायक के मुख से सुनते हैं तो लगता है कि किसी संगीत शास्त्रज्ञ की कोई बंदिश सुन रहे हों। चाहे उसमें अलंकार की बात हो, नाद की, लय-ताल की या फिर मधुरता की, कहीं से कोई कमजोर कड़ी दृष्टिगत ही नहीं होती। तुलसीदास ही क्यों, कबीर, सूर, मीरा या किसी भी अन्य संत कवि के पद ले लें, प्रशंसा करनी ही पड़ती है। सच तो यह है कि हम शास्त्रीय संगीत की बात करें या सुगम की, भक्ति एवं शृंगार के बिना उसका अस्तित्व हो ही नहीं सकता।

     गोस्वामी बिंदु जी की भक्ति अलौकिक थी और ऐसी ही थी उनकी कवित्व शक्ति। उनके पदों पर गौर करते हैं तो लगता है कि ये भक्तिकाल के कवियों के पदों का सुंदर अनुसरण हैं, किंतु भक्तिकाल में भक्ति की ग़जलें नहीं लिखी गई थीं। बाद में भक्ति की ग़ज़लों की बात की जाए तो बिंदु जी महराज का नाम सर्वोपरि होगा। मजे की बात यह कि बहुतायत में हिंदी प्रयोग करते हुए भक्ति ग़ज़लें उन्होंने तब लिखीं, जब हिंदी साहित्य में ग़ज़लों का अस्तित्व था ही नहीं। अधिकांशतः उर्दू-फारसी की ग़ज़लें ही लिखी जा रही थीं, जिनकी विषयवस्तु वही हुस्न-इश्क और ज़ाम होता था। तब हिंदी ग़ज़ल में दुष्यंत का काल भी प्रारंभ नहीं हुआ था, जिसमें ग़ज़लें लोकजीवन का स्वर बनीं और क्रांतिधर्मी साहित्य का श्रीगणेश हुआ।

     गोस्वामी बिंदु जी का जन्म सन् 1893 ई0 में राधाष्टमी के दिन अयोध्या में हुआ था। संभवतः ईश्वर भक्ति और अध्यात्म उनके जन्मदिन एवं जन्मस्थल से ही जुड़ गया था। असाधारण प्रतिभा के धनी बिंदु जी महराज की शिक्षा अयोध्या में ही हुई। उन्होंने धर्म-अध्यात्म का गहरा अध्ययन किया। उनका संस्कृत, हिंदी, अंगरेजी, उर्दू, ब्रजभाषा, अवधी एवं भोजपुरी भाषाओं पर पूरा अधिकार था। वे श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। कहा जाता है कि वे बाँके बिहारी जी को प्रतिदिन एक भक्तिपद या गीत सुनाया करते थे। रामचरित मानस में उनकी गहन रुचि थी। आगे चलकर उनके मानस प्रेम की परिणिति वाराणसी में 'अखिल भारतीय मानस सम्मेलन' की स्थापना के रूप में हुई। मानस के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा उनकी एक भक्ति ग़ज़ल में इस प्रकार प्रकट हुई है -

हमें निजधर्म पर चलना, बताती रोज रामायण।
सदा शुभ आचरण करना, सिखाती रोज रामायण।
जिन्हें संसार सागर से उतरकर पार जाना है I
उन्हें सुख से किनारे पर लगाती रोज रामायण।
कभी वेदों के सागर में, कभी गीता की गंगा में
कभी रस 'बिन्दु' में मन को डुबाती रोज रामायण।

(क्रमशः)--

--हरिशंकर राढ़ी
(July 07, 2022)
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                         (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-इयत्ता.इन)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-12.11.2022-शनिवार.