साहित्यशिल्पी-जैन धर्म में संथारा अर्थात संलेखना

Started by Atul Kaviraje, November 18, 2022, 09:10:22 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख.

मुनिश्री सुमेरमलजी का चैविहार संथारे में देवलोकगमन मृत्यु को महोत्सव बनाने का विलक्षण उपक्रम है संथारा [आलेख] - ललित गर्ग--1--
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     जैन धर्म में संथारा अर्थात संलेखना- 'संन्यास मरण' या 'वीर मरण' कहलाता है। यह आत्महत्या नहीं है और यह किसी प्रकार का अपराध भी नहीं है बल्कि यह आत्मशुद्धि का एक धार्मिक कृत्य एवं आत्म समाधि की मिसाल है और मृत्यु को महोत्सव बनाने का अद्भुत एवं विलक्षण उपक्रम है। तेरापंथ धर्मसंघ के वरिष्ठ सन्त 'शासनश्री' मुनिश्री सुमेरमलजी 'सुदर्शन' ने इसी मृत्यु की कला को स्वीकार करके संथारे के 10वें दिन चैविहार संथारे में दिनांक 4 अगस्त 2018 को सुबह 05.50 बजे देवलोकगमन किया। मुनिश्री ने गत दिनांक 26 अगस्त को सायं 07.43 पर तिविहार संथारे का प्रत्याख्यान किया था। उनको 3 मिनट का चैविहार संथारा आया। मुनिश्री की पार्थिव देह अंतिम दर्शनों हेतु अणुव्रत भवन, 210, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग में रखा गया, जहां से उनकी समाधि यात्रा दरियागंज, लालकिला होते हुए निगम बोध घाट पहुंची। हजारों श्रद्धालुजनों सहित अनेक राजनेताओं, साहित्यकारों, धर्मगुरुओं, समाजसेवियों एवं रचनाकारों ने उनके अन्तिम दर्शन किये।

     मुनि सुमेरमलजी सुदर्शन ने नब्बे वर्ष की आयु में अपने जीवन ही नहीं, बल्कि अपनी मृत्यु को भी सार्थक करने के लिये संथारा की कामना की, उनकी उत्कृष्ट भावना को देखते हुए उनके गुरु आचार्य श्री महाश्रमण ने इसकी स्वीकृति प्रदत्त की और उन्हें 26 अगस्त 2018 को सांय संथारा दिला दिया गया। मुनिश्री का सम्पूर्ण जीवन भगवान महावीर के आदर्शों पर गतिमान रहा है। आप एक प्रतिष्ठित जैन संत हैं। जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, साहित्य-सृजन, संस्कृति-उद्धार के उपक्रमों से एक नया इतिहास बनाया है। एक सफल साहित्यकार, प्रवक्ता, साधक एवं प्रवचनकार के रूप में न केवल जैन समाज बल्कि सम्पूर्ण अध्यात्म-जगत में सुनाम अर्जित किया है। विशाल आगम साहित्य आलेखन कर उन्होंने साहित्य जगत में एक नई पहचान बनाई है। ग्यारह हजार से अधिक ऐतिहासिक एवं दुर्लभ पांडुलिपियों, कलाकृतियों को सुरक्षित, संरक्षित और व्यवस्थित करने में आपकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जैन आगमों के सम्पादन-लेखन-संरक्षण के ऐतिहासिक कार्य में आपका सम्पूर्ण जीवन, श्रम, शक्ति नियोजित रही है। अनेक विशेषताओं एवं विलक्षणओं के धनी मुनिश्री को ही आचार्य श्री महाश्रमण के आचार्य पदाभिषेक के अवसर पर सम्पूर्ण समाज की ओर से पछेवड़ी यानी आचार्य आदर ओढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सुप्रतिष्ठित जैन विद्या पाठ्यक्रम को तैयार कर भावीपीढ़ी के संस्कार निर्माण के महान् कार्य को भी आपने अंजाम दिया है। ऐसे महान् साधक, तपस्वी एवं कर्मयौद्धा संत का संथारा भी एक नया इतिहास निर्मित कर रहा है।

     एक बार संत विनोबा भावे ने कहा था कि गीता को छोड़कर और महावीर से बढ़कर इस संसार में कोई नहीं है। यह बात मैं गर्व से नहीं, बल्कि स्वाभिमान से कह सकता हूं। विनोबा भावे ने जैन संतों का भी अनुकरण किया है। उन्होंने जैन परम्परा में मृत्यु की कला को भी आत्मसात करते हुए संलेखना-संथारा को स्वीकार कर मृत्यु का वरण किया। संलेखना के दौरान वर्धा में गांधी आश्रम में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनसे कहा था कि देश को उनकी जरूरत है। उन्हें आहार नहीं छोड़ना चाहिए। तो संत विनोबा भावे ने कहा था कि मेरे और परमात्मा के बीच में अब किसी को नहीं आना है, क्योंकि अब मेरी यात्रा पूर्ण हो रही है। न केवल विनोबा भावे बल्कि अनेक जैनेत्तर लोगों ने भी समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करके संथारे को गौरवान्वित किया है। मुनि सुदर्शन ने अपनी मृत्यु को इसी प्रकार धन्य करके अमरत्व की ओर गति की है।

-ः ललित गर्ग:- दिल्ली
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                    (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-18.11.2022-शुक्रवार.