साहित्यशिल्पी-जैन धर्म में संथारा अर्थात संलेखना-2-अ

Started by Atul Kaviraje, November 19, 2022, 09:36:35 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख.

मुनिश्री सुमेरमलजी का चैविहार संथारे में देवलोकगमन मृत्यु को महोत्सव बनाने का विलक्षण उपक्रम है संथारा [आलेख] - ललित गर्ग--2--अ
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     जैन धर्म की सबसे प्राचीन आत्म उन्नयन की परम्परा है संथारा (संलेखना)। संथारा एक अहिंसक और आध्यात्मिक साधना पद्धति है इसलिए इसके समर्थन में होने वाले उपक्रम भी अहिंसक एवं आध्यात्मिक होते हैं। संथारा को श्रावकीय मनोरथों की शृंखला में तीसरा और आखिरी मनोरथ माना गया है। साधारणतः जीवन को प्रिय एवं मृत्यु को अप्रिय माना जाता है। लेकिन जैन दर्शन जीवन में मृत्यु और मृत्यु में जीवन का दर्शन प्रस्तुत करता है। भगवान महावीर ने कहा था कि मृत्यु से मत डरो, यह अभय का सूत्र व्यक्ति को निरंतर तद्नुरूप साधना से प्राप्त हो सकता है और इससे व्यक्ति का मृत्यु के प्रति भय भी क्षीण हो जाता है। जब व्यक्ति को लगे कि यह शरीर अब कम काम करने लगा है तब इस पर संलेखना का प्रयोग शुरू करें। इससे बाह्य दृष्टि से भले ही शरीर-बल क्षीण होगा पर आत्मबल प्रकट होता रहेगा। निरंतर संलेखना तप से जब मृत्यु निकट भी आयेगी तब व्यक्ति के लिए शरीर त्याग करने का मोह नहीं रहेगा। वह अभय बनकर अनशनपूर्वक अपनी जीवन यात्रा को समाप्त कर सकेगा। यह न केवल श्रावक बल्कि मुनि के लिए भी जीवन की सुखद अंतिम परिणति है। मृत्यु की इस अद्भुत कला संथारा को लेकर वर्तमान समय में अनेक भ्रांतियां एवं ऊंहापोह की स्थितियां परिव्याप्त हैं। एक आदर्श परंपरा पर छाये कुहासे एवं धुंधलकों को छांटने की जरूरत है। मुनि सुदर्शन ने एक साहसिक कदम उठाते हुए जैन धर्म की आध्यात्मिक विरासत को सुरक्षित रखने का उपक्रम किया एवं इसकी प्रेरणा दी है। जन-जन के घट-घट में मृत्यु की विलक्षण परम्परा का दीप प्रज्ज्वलित कर अंतर के पट खोलने का संदेश दिया हैं। जन्म और मृत्यु एक चक्र है, आदमी आता है, गुजर जाता है, आखिर क्यों? क्या मकसद है उसके आने-जाने और होने का। वह आकर जाता क्यों है? पुख्ता जमीन क्यों नहीं पकड़ लेता? क्या उसके इस तरह होने के पीछे कोई राज है? कुल मिलाकर मुनि सुदर्शन ने संथारा स्वीकार करके एक नया इतिहास रचा है।

     मृत्यु को लेकर जो अज्ञान है। यदि उस अज्ञान के दुर्ग की प्राचीरों को जमींदोज कर दिया जाये तो कोई उलझन शेष नहीं रहेगी। अज्ञान भय को जन्म देता है और भय जिंदगी को नर्क बना देता है। असल में आसक्ति या राग तमाम विपत्तियों की जड़ है और अनासक्ति जननी है मुक्ति की, शांति की, समता की। अनादि संसार में कोई भी ऐसा जीव नहीं है जो जन्म लेकर मरण को प्राप्त न हुआ हो। देवेन्द्र, नरेन्द्र, मुनि, वैद्य, डाॅक्टर सभी का अपने-अपने सुनिश्चित समय में मरण अवश्य हुआ है। कोई भी विद्या, मणि, मंत्र, तंत्र, दिव्यशक्ति, औषध आदि मरण से बचा नहीं सकते। अपनी आयु के क्षय होने पर मरण होता ही है। कोई भी जीव यहां तक कि तीर्थंकर परमात्मा भी, अपनी आयु अन्य जीव को दे नहीं सकते और न उसकी आयु बढ़ा सकते हैं और न हर सकते हैं। अज्ञानी मरण को सुनिश्चित जानते हुए भी आत्महित के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ रहता है। जबकि ज्ञानी मरण को सुनिश्चित मानता है। वह जानता है कि जिस प्रकार वस्त्र और शरीर भिन्न हैं, उसी प्रकार शरीर और जीव भिन्न-भिन्न हैं। इसलिए छूटते हुए शरीर को छोड़ने में ज्ञानी को न भय होता है और न ममत्व, अपितु उत्साह होता है। यही उत्साह संथारा की आधारभित्ति है और पुनर्जन्म या जन्म-जन्मांतर या उसकी शंृखला को मेटने या काटने की कला है, उस कला से साक्षात्कार करके मुनि सुदर्शन ने मृत्यु को महोत्सव का स्वरूप प्रदान किया है।

-ः ललित गर्ग:- दिल्ली
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-19.11.2022-शनिवार.