साहित्यशिल्पी-विदेशों में ही क्यों बढ़ रही है हिन्दी की ताकत [आलेख] –2-ब

Started by Atul Kaviraje, November 25, 2022, 09:25:12 PM

Previous topic - Next topic

Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
                                    ---------------

मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "विदेशों में ही क्यों बढ़ रही है हिन्दी की ताकत [आलेख]" 

             विदेशों में ही क्यों बढ़ रही है हिन्दी की ताकत [आलेख] –2--ब--
            -------------------------------------------------------

     अंग्रेजी बोलने वाला ज्यादा ज्ञानी और बुद्धिजीवी होता है- यह धारणा हिन्दी भाषियों में हीन भावना ग्रसित करती है। हिन्दी भाषियों को इस हीन भावना से उबरना होगा। हिन्दी किसी भाषा से कमजोर नहीं है। हिन्दी को कमजोर हम ही बना रहे हैं, बल्कि हिन्दी की यह घोर अवमानना एवं अपमान है कि हमने हिन्दी को अंग्रेजी का मिश्रण बना दिया है। इस तरह की मिश्रित भाषा का प्रयोग इलेक्ट्रोनिक मीडिया एवं समाचार पत्रों में क्यों बढ़-चढ़कर हो रहा है, यह एक विचारणीय विषय है। यही वह बिन्दु है जिस पर हमें विचार करना है। इलेक्ट्राॅनिक एवं प्रिंट मीडिया का भाषा के प्रति वर्तमान रूख तो यही दर्शाता है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी को प्रमुखता न देकर अंतर्राष्ट्रीय भाषा के नाम पर अंग्रेज भाषा के शब्दों को हिन्दी भाषा में मिला दो ताकि वह जन-जन की जुबान पर चढ़ जाए और मिश्रित भाषा को बढ़ावा दिया जाए। इस मिश्रित भाषा के बढ़ते प्रयोग का प्रभाव भी अब हमारे जीवन में दिखाई दे रहा है। शहरों से लेकर गांवों तक अब सर, मैडम, बाथरूम, लंच, डिनर इत्यादि शब्दांे से युक्त वाक्यों का प्रचलन बढ़ा है। श्रीमन्, महोदय, महोदया, स्नानघर, भोजन शब्द हमारे मुंह से निकल ही नहीं पा रहे हैं। सर, मेरी बात तो सुनिए, जैसे वाक्य आम होते जा रहे हैं। इस तरह आधुनिकता के नाम पर भाषा और संस्कृति के साथ समाचार जगत हमारी सभ्यता और परम्पराओं के ऊपर पश्चिमी सभ्यता को थोप रहा है। लगता है बाहर निकलने के सभी रास्ते बंद हैं। इन बंद रास्तों को खोलने के लिए आज जरूरत है विचारों को अपनी भाषा में व्यक्त करने की। इतिहास साक्षी है कि विश्व की अनेक सभ्यताएं समाप्त हो गई परन्तु भारत अपनी सभ्यता और संस्कृति के बल पर आज भी अडिग है क्योंकि भारत ने सदैव साध्य के साथ साधन की पवित्रता पर बल दिया है। हमारी भाषा और हमारे साहित्य की व्यापकता ने ही हमारे समाज को तेजस्विता दी है और प्रकाशमान बनाए रखा है। भाषा के शब्दकोश को समृद्ध बनाने के लिए अन्य भाषाओं के शब्दों को लिया जा सकता है पर यह ध्यान रखना होगा कि उससे हमारी मौलिकता ही समाप्त नहीं हो जाए। वर्तमान में तो संचार माध्यम ऐसा ही कर रहे हैं। अतः हमारी राष्ट्रभाषा के साथ जो घिनौना खेल जाने-अनजाने खेला जा रहा है उसे तुरंत रोका जाना चाहिए।

     हमें जरूरत है तो बस अपना आत्मविश्वास मजबूत करने की। यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो, उस भाषा के प्रति घोर उपेक्षा व अवज्ञा के भाव, हमारे राष्ट्रीय हितों में किस प्रकार सहायक होंगे। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों? शेक्सपीयर ने कहा था-'दुर्बलता! तेरा नाम स्त्री है।' पर आज शेक्सपीयर होता तो आम भारतीय के द्वारा हो रही हिन्दी की उपेक्षा के परिप्रेक्ष्य में कहता-'दुर्बलता! तेरा नाम भारतीय जनता है।'

--प्रेषक:-ललित गर्ग-दिल्ली
------------------------

                    (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
                   -----------------------------------------   

-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-25.11.2022-शुक्रवार.