प्रफुल्ल कोलख्यान साहित्य :-कविता-बाघ और बानर के अश्लील विकल्पों के बीच

Started by Atul Kaviraje, November 26, 2022, 09:47:54 PM

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Atul Kaviraje

              "प्रफुल्ल कोलख्यान साहित्य : विचार और संवेदना का साझापन"
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मित्रो,

     आज पढते है, प्रफुल्ल कोलख्यान, इनके "प्रफुल्ल कोलख्यान साहित्य : विचार और संवेदना का साझापन" इस ब्लॉग की एक कविता. इस कविता का शीर्षक है- "बाघ और बानर के अश्लील विकल्पों के बीच"

                   बाघ और बानर के अश्लील विकल्पों के बीच--
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जब व्यवस्था बाजार के हवाले हो जाये
और बाजार, बाजीगर का अखाड़ा
तब आदमी बाघ और बानर के अश्लील विकल्पों के बीच
औंधे मुँह गिरा होता है
चारों ओर अपनी समस्त विद्रूपताओं के साथ
उगने लगता है जंगल

जंगल जो दीखता नहीं है मगर होता है
इतिहास अपनी मौत के एलान पर
पगलाये कुत्ते की तरह रोता है

सभ्यता और संस्कृति फटी कमीज की तरह
अंतत: एक दिन खूँटी से भी गायब हो जाती है

जिसका कुर्त्ता जितना झक्क होता है
मुँह चुराती नैतिकता के संविधान में छिपे रहने पर
उसे उतना ही शक होता है

आस्था का आधार, जब बन जाता है बाजार
आदमी के दिमाग में न-दर्शन बचता है
न-दल, न-संवेदना बचती है, न-सोचने का बल
शब्द मरने लग जाते हैं, बिखरने लग जाते हैं अर्थ
और सूखे हुए घाव के बड़े निशान
ताजा खरोंचों की करुण डोर पकड़
रक्त-संचार की जड़ में टूटे हुए जहाज की तरह,
बैठने लग जाते हैं
लाभ और लोभ तोष और क्षोभ
बटखरे की तरह इस्तेमाल होने लग जाते हैं
परदु:ख-कातरता धर्म-काँटा की नोक पर
आदिमजात के अंतिम अश्रुकण की तरह
पथरायी रह जाती है

--प्रस्तुतकर्ता-प्रफुल्ल कोलख्यान
(12/20/2012)
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            (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-प्रफुल्ल कोलख्यान.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-26.11.2022-शनिवार.