साहित्यशिल्पी-धन उपार्जन और आपका विवेक- [आलेख] –1

Started by Atul Kaviraje, November 28, 2022, 09:18:15 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "धन उपार्जन और आपका विवेक- [आलेख]" 

                   धन उपार्जन और आपका विवेक- [आलेख] –1--
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     पिछले दिनों अमीरी को इज्जत का माध्यम माना जाता रहा है। इज्जत पाना हर मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा है। इसलिये प्रचलित मान्यताओं के अनुसार हर मनुष्य अमीरी का इच्छुक रहता है, ताकि उसे दूसरे लोग बड़ा आदमी समझें और इज्जत करें। अमीरी सीधे रास्ते नहीं आ सकती। उसके लिए टेड़े रास्ते अपनाने पड़ते हैं। हर समाज और देश की अर्थ व्यवस्था एक स्तर होता है। उत्पादन, श्रम और क्षमता के आधार पर दौलत बढ़ती है। देश में वैसे साधन न हों तो सर्वसाधारण के गुजारे भर के लिए ही मिल सकता है। अपने देश की स्थिति आज ऐसी ही है, जिसमें किसी प्रकार निर्वाह चलता रहे तो पर्याप्त है। औसत देशवासी की परिस्थिति से अपने को मिलाकर काम चलाऊ आजीविका से सन्तोष करना चाहिये। हम सब एक तरह का जीवन जीते हैं और ईर्ष्या, असन्तोष का अवसर नहीं आने देते इतना ही सोचना पर्याप्त है। अमीरी की ललक पैदा करना सीधा मार्ग छोड़कर टेढ़ा अपनाने का कदम बढ़ाना है। पिछले दिनों अनैतिक मार्ग अपनाने वाले-अमीरों इकट्ठी कर लेने वाले इज्जत आबरू वाले बड़े आदमी माने जाते रहे होंगे। पर अब वे दिन लद चुके। अब समझदारी बढ़ रही है। दौलत अब बेइज्जती की निशानी बनती चली जा रही है। लोग सोचते हैं, यह आधे मार्ग अपनाने वाला आदमी है। यदि सीधे मार्ग से कमाता है तो भी ईमानदारी का लोभ है कि देश-वासियों ने औसत वर्ग की तरह जिये और बचत को लोक मंगल के लिए लौटा दे। यदि ऐसा नहीं किया जाता, बढ़ी हुई कमाई को ऐयाशों में बड़प्पन के अहंकारी प्रदर्शन में खर्च किया जाता है अथवा बेटे-पोतों के लिए जोड़ा जमा किया जाता है तो ऐसा कर्तव्य विचारशीलता की कसौटी पर अवांछनीय ही माना जाएगा अमीरी अब निस्सन्देह एवं निष्ठुर वर्ग माना जाएगा हमें सन्देह है कि अमीरी अब पचास वर्ष भी जीवित रह सकेगी। विवेकशीलता उसे छोड़ने के लिए बाध्य करेंगी अन्यथा कानून विद्रोह उसका अन्त कर देगा।

     अमीरी इकट्ठी तो कोई बिरले ही कर पाते हैं पर उसकी नकल बनाने वाले विदूषक हर जगह भरे पड़े हैं। चूँकि अमीरी इज्जत का प्रतीक बनी हुई थी, इसलिए इज्जत पाने के लिये अमीरी इकट्ठी करनी चाहिये और यदि वह न मिले तो कम से कम उसका ढोंग ही बना लेना चाहिये, यह बात नासमझ वर्ग में धर कर गई है और वह इस नकलची मन पर बेतरह अपने आपको बर्बाद करता और अर्थ संकट के दल-दल में धँसता चला जाता है। लोग सोचते हैं कि हम अपना ठाठ-बाठ अमीरों जैसा बना लें तो दूसरे यह समझेंगे कि यह अमीर और बड़ा आदमी है और चटपट उसकी इज्जत करने लगेंगे, इसी नासमझी के शिकार असंख्य ऐसे व्यक्ति, जिनकी आर्थिक स्थिति सामान्य जीवन यापन के भी उपयुक्त नहीं, अमीरी का ठाठ-बाठ बनायें फिरते हैं। कपड़े जेवर, फर्नीचर, सुसज्जा आदि को प्रदर्शनात्मक बनाने में इतना खर्च करते रहते हैं कि उनकी आर्थिक कमर ही टूट जाती है। दोस्तों के सामने अपनी अमीरी का पाखण्ड प्रदर्शित करने के लिए पान-सिगरेट सिनेमा, होटल आदि के खर्च बढ़ाते हैं और उसमें उन्हें भी शामिल करते हैं ताकि उन पर अपनी अमीरी का रौब बैठ जाय और इज्जत मिलने लगे। कैसी झाड़ी समझ है यह और कैसा फूहड़ तरीका है। कोई समझदार व्यक्ति उस नासमझी पर हँस ही सकता है। पर असंख्य लोग इसी बहम में फँसे फिजूल खर्ची और फैशन में पैसा उड़ाते रहते हैं और अपनी आर्थिक स्थिरता को खोखली करते चलते हैं।

--पंकज "प्रखर "
कोटा (राजस्थान)
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                      (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-28.11.2022-सोमवार.