पड़ोस-दीवार में एक आला रहता था-ब

Started by Atul Kaviraje, December 12, 2022, 09:41:41 PM

Previous topic - Next topic

Atul Kaviraje

                                       "पड़ोस"
                                      ---------

मित्रो,

     आज पढते है, डॉ. वर्षा सिंह, इनके "पड़ोस" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख  का शीर्षक है- "दीवार में एक आला रहता था"

                           दीवार में एक आला रहता था--ब--
                          -----------------------------

     उस मकान की मिटटी की दीवारों में जगह जगह ताख या आले बने हुए थे जिनका उपयोग छोटा मोटा सामान, दीपक आदि रखने के लिए होता था  । एक बार विपिन चाचा भंडारा आये ৷उन्होंने मजाक में पूछा    "क्या तुम आले में रुमाल बिछाकर सो सकते हो ?" मैं बहुत देर तक सर खुजाता रहा और कहा "मैं क्या कोई नहीं सो सकता .. वो तो सिर्फ तुलसी बाबा के हनुमान जी कर सकते हैं .. सूक्ष्म रूप धरी सियही दिखावा ৷ " विपिन चाचा हंसने लगे " अरे भाई,  सूक्ष्म रूप धर कर आले में सोने को कौन कह रहा है .. आले में रुमाल बिछाकर आप फर्श पर भी तो सो सकते हैं ।"

     घर के सामने वाले आंगन से एक गली इन कमरों के समानांतर पीछे के आंगन तक जाती थी जिसकी बाहरी दीवारें बरसात के दिनों में पसीजती रहती थीं ৷ वहीं बगल के मकान वाले सहसराम के घर के पीछे की दीवार भी इसी गली में खुलती थी जो हर बरसात में थोड़ी थोड़ी ढह जाती थी ৷ इस दीवार पर बांस की एक सीढ़ी लटकी रहती थी ৷ कच्चे मकानों की मिट्टी की इन दीवारों की नियति यही थी कि इन्हें बारिश से बचाना होता था ৷ आज भी गाँवों में ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं जहाँ घर के भीतर की दीवारें तो छप्पर होने के कारण बची रहती हैं लेकिन चहारदीवारी अक्सर बारिश में ढह जाती है ৷

     एक दिन मुस्लिम लायब्रेरी के एक मुशायरे में संचालक ने शायर सिब्त अली सबा के एक शेर पढ़ा जिसका ज़िक्र मेरे मित्र नासिर अहमद सिकंदर अक्सर करते हैं .....

दीवार क्या गिरी मिरे ख़स्ता मकान की
लोगों मेरे सेहन में रस्ते बना लिए ৷

     आज भी सिर्फ ढही हुई दीवारें ही नहीं बल्कि ढहे हुए इरादों वाले ढहे हुए लोगों और उनकी विवशता का फ़ायदा उठाते समर्थ लोगों को देखकर मुझे यही शेर याद आता है ৷ वैसे भी मिटटी की दीवारें तो ग़रीब मज़लूमों के घर की हुआ करती हैं , पत्थरों के मजबूत आलीशान मकान तो केवल राजाओं, अमीरों, धन्ना सेठों, भगवानों और ख़ुदाओं को ही नसीब हैं ৷

     हमारा यह मिट्टी का घरौंदा सिर्फ दीवारों में ही मिट्टी का नहीं था बल्कि बीच के दोनों कमरों की छत जो उपरी मंजिल का फर्श भी थी बांस और मिटटी की ही बनी थी और लकड़ी की दो मज़बूत मयालों पर टिकी हुई थी ৷ मकान मालकिन नानी जब उस फर्श पर चलतीं तो उनके चलने से नीचे बीच वाले दोनों कमरों में धम्म धम्म की आवाज़ आती थी । उन दिनों मुझे भूत-प्रेत की कहानियाँ पढ़ने का बहुत शौक था ৷ वैसे भी गाँवों में सर्दियों की रातों में गुदड़ी में दुबके हुए बच्चों को उनकी माँ, दादियाँ और नानियाँ तो परी और राजकुमार के किस्से सुनाती थीं लेकिन घर में कुछ बड़े भाई होते थे जो बदमाशी किया करते थे और छोटे भाई बहनों को भूत- प्रेत की झूठी कहानियाँ  सुनकर डराया करते थे ৷ बैतूल में मेरे बड़े भाइयों और उनके दोस्तों ने इसी भूमिका का निर्वाह किया था ৷

     नानी जब गाँव चली जाती थीं और ऊपर की मंज़िल पर कोई नहीं रहता था वह आवाज़ आनी बंद हो जाती थी ৷ एक दिन उनकी अनुपस्थिति में भी धम्म से आवाज़ आई ৷ मैंने पहले दिन तो वह आवाज़ सुन कर भी  अनसुनी कर दी ৷ दूसरे दिन फिर वैसी ही आवाज़ आई ৷ मैं बुरी तरह डर गया था ৷ मुझे लगा नानी के जाने के बाद वहाँ भूत रहने आ गए हैं ৷ मैं कान लगाकर भूतों के चलने की आवाज़ सुनने की कोशिश करता लेकिन भूत होते तब ना आवाज़ आती । डर की इंतिहा हो जाने के बाद एक दिन मैंने  माँ से कहा " माँ, लगता है नानी ने भूत पाले हैं ৷" माँ ज़ोरों से हँसी.. " अरे वह धप्प से बिल्ली के कूदने की आवाज़ हो सकती है ৷" फिर वे मुझे पीछे वाले आंगन में लेकर गई ৷ हमने देखा ऊपर की माड़ी की खुली खिड़की से एक काली बिल्ली निकलकर बाहर आ रही थी ৷ शायद चूहों की तलाश में वह वहाँ आ गई थी ৷

     माँ ने कहा "देखो, कभी किसी चीज़ से डरना नहीं ৷ अगर डर लगे तो उसके करीब जाकर देखना, जैसे ही करीब जाओगे उसकी असलियत समझ में आ जाएगी और डर ख़तम हो जाएगा ৷ जो दूर से दिखाई देता है वह हमेशा सच नहीं होता ৷ उसके बाद भूत-प्रेत, बुरी आत्मा, चुड़ैल, दानव, राक्षस, लाश, मरघट , अँधेरा और हॉरर फिल्मों जैसी चीज़ों से मेरा डर ख़तम हो गया ৷ जिस चीज़ से मुझे डर लगता मैं उसके करीब जाकर उसकी वास्तविकता को जानने का प्रयास करता और आश्चर्य कि सच्चाई जानकर मेरा डर  ख़त्म हो जाता ৷

     पिछले दिनों मैंने मौत को भी इसी तरह क़रीब जाकर देखा ৷ और मैंने क्या ... हमने आपने सबने देखा है ৷ भय यद्यपि हमारी जैविक इच्छाओं या विशेषताओं के अंतर्गत आता है लेकिन हमें सायास इस पर काबू पाना होता है ৷ हम भले पूरी तरह काबू न कर पायें लेकिन कोशिश तो कर ही सकते हैं ৷

--शरद कोकास
(11 अक्तूबर 2021)
-------------------

             (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-शरद कोकास.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
            ---------------------------------------------------

-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-12.12.2022-सोमवार.