साहित्यशिल्पी-गुजरात के चुनाव में आदिवासियों की उपेक्षा क्यों ?-2-ब-

Started by Atul Kaviraje, December 23, 2022, 10:23:10 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "गुजरात के चुनाव में आदिवासियों की उपेक्षा क्यों ?" 

              गुजरात के चुनाव में आदिवासियों की उपेक्षा क्यों ?-2--ब--
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गुजरात के चुनाव में आदिवासियों की उपेक्षा क्यों? - [आलेख]- ललित गर्ग-
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     अब जबकि गणि राजेन्द्र विजयजी के प्रयासों से आदिवासी क्षेत्र में शिक्षा को लेकर भी जागृति का माहौल बना है। उनका मानना है कि सरकार के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों को इस दिशा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका बनानी चाहिए। जैसाकि छोटा उदयपुर में उनके स्वयं के नेतृत्व में सुखी परिवार फाउंडेशन के द्वारा बालिका शिक्षा एवं शिक्षा की दृष्टि से एक अभिनव क्रांति घटित हुई है। लेकिन आदिवासी समुदाय की शिक्षा राज्य एवं केन्द्र सरकार के लिए एक चुनौती का प्रश्न है। आदिवासी समुदाय में शिक्षा के स्तर को बढ़ाना एवं इसे सुनिश्चित करना जरूरी है। यह एक ऐसी समस्या है जिसका समाधान हमें समग्रता से ढूंढना होगा। इसके लिए जरूरी है कि पहले हम उन समस्याओं को सुलझाएं जिनके कारण आदिवासी बच्चों का स्कूलों में ठहराव नहीं हो पा रहा है, उनका नामांकन नहीं हो पा रहा, पाठशाला से बाहर होने की दर, खासकर लड़कियों में लगातार बढ़ती जा रही है। बच्चे घरों में, होटलों या ढाबों पर या खेतों के काम कर रहे हैं। कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका हल हमें समस्या की जड़ तक ले जाएगा। इससे निपटने के लिए समाज, राज्य एवं केन्द्र को सघन प्रयास करने होंगे और ये इन चुनावों में ये मुद्दें उठने चाहिए थे, ऐसा न होना राजनीतिक दलों की सोच एवं मंशा पर सवाल खड़े करती है।

     हमें यह समझना होगा कि एक मात्र शिक्षा की जागृति से ही आदिवासियों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आएगा। बदलाव के लिए जरूरत है उनकी कुछ मूल समस्याओं के हल ढूंढना। भारत के जंगल समृद्ध हैं, आर्थिक रूप से और पर्यावरण की दृष्टि से भी। देश के जंगलों की कीमत खरबों रुपये आंकी गई है। ये भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से तो कम है लेकिन कनाडा, मेक्सिको और रूस जैसे देशों के सकल उत्पाद से ज्यादा है। इसके बावजूद यहां रहने वाले आदिवासियों के जीवन में आर्थिक दुश्वारियां मुंह बाये खड़ी रहती हैं। आदिवासियों की विडंबना यह है कि जंगलों के औद्योगिक इस्तेमाल से सरकार का खजाना तो भरता है लेकिन इस आमदनी के इस्तेमाल में स्थानीय आदिवासी समुदायों की भागीदारी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है। जंगलों के बढ़ते औद्योगिक उपयोग ने आदिवासियों को जंगलों से दूर किया है। आर्थिक जरूरतों की वजह से आदिवासी जनजातियों के एक वर्ग को शहरों का रुख करना पड़ा है। विस्थापन और पलायन ने आदिवासी संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और संस्कार को बहुत हद तक प्रभावित किया है। गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के चलते आज का विस्थापित आदिवासी समाज, खासतौर पर उसकी नई पीढ़ी, अपनी संस्कृति से लगातार दूर होती जा रही है। आधुनिक शहरी संस्कृति के संपर्क ने आदिवासी युवाओं को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां वे न तो अपनी संस्कृति बचा पा रहे हैं और न ही पूरी तरह मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहे हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आदिवासी काॅर्निवल में आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं की और वे इस समुदाय के विकास के लिए तत्पर भी हैं। लेकिन इन चुनावों में उनके द्वारा आदिवासी समुदायों के समग्र विकास की चर्चा न होना, आश्चर्यकारी है। क्योंकि आदिवासियों का हित केवल आदिवासी समुदाय का हित नहीं है प्रत्युतः सम्पूर्ण देश व समाज के कल्याण का मुद्दा है जिस पर व्यवस्था से जुड़े तथा स्वतन्त्र नागरिकों को बहुत गम्भीरता से सोचना चाहिए। और इस बार के गुजरात चुनाव इसकी एक सार्थक पहल बनकर प्रस्तुत हो, यह अपेक्षित है।

--प्रेषकः-(ललित गर्ग)
--दिल्ली-11 00 51
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                      (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-23.12.2022-शुक्रवार.