निबंध-क्रमांक-123-अतिवृष्टि पर निबंध –

Started by Atul Kaviraje, December 30, 2022, 09:18:26 PM

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Atul Kaviraje

                                         "निबंध"
                                      क्रमांक-123
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मित्रो,

      आईए, पढते है, ज्ञानवर्धक एवं ज्ञानपूरक निबंध. आज के निबंध का शीर्षक है- "अतिवृष्टि पर निबंध – Flood Essay"

                        अतिवृष्टि पर निबंध – Flood Essay--
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प्रस्तावना–
जल को जीवन कहते हैं। बिना जल के जीवधारियों का धरती पर जीना सम्भव नहीं है। प्रकृति ने जल की व्यवस्था स्वयं की है। बादल जल बरसाते हैं। इससे पेड़–पौधों, पशु–पक्षियों तथा मनुष्यों को जीने की सुविधा मिलती है।

भीषण गर्मी के बाद बादलों से बरसती बूंदों से मन प्रसन्न होता है, किन्तु कभी–कभी इतना पानी बरसता है कि हमारी प्रसन्नता क्षणभर में ही गायब हो जाती है। 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' के अनुसार अतिवृष्टि भी हमारे लिये दु:खदायी ही होती है।

वर्षा का आरम्भ–
मुझे दिन तो याद नहीं किन्तु महीना सितम्बर यानी आश्विन (क्वार) का था। शाम से ही बादल छाने लगे थे और रिमझिम शुरू हो गई थी। धीरे–धीरे यह बौछारों में बदल गयी और आश्विन का घन फूट पड़ा। आगरा से शुरू हुई इस वर्षा ने जयपुर तक पीछा नहीं छोड़ा। मेरी रेलगाड़ी जयपुर की ओर दौड़ रही थी और वर्षा भी उसका पीछा कर रही थी। मुझे वर्षा की भीषणता का अनुमान नहीं था।

सोचा था घंटे–दो घंटे में बंद हो जाएगी। यह सोचकर मैंने छाता भी अपने मित्र को लौटा दिया था। मेरे पास एक थैला था जिसमें केवल एक तौलिया थी। – जलमग्न जयपुर–गाड़ी जब जयपुर के प्लेटफार्म पर रुकी तो सुबह के चार बज चुके थे।

वर्षा अब भी मूसलाधार हो रही थी। गाड़ी से उतरकर प्रतीक्षालय की शरण ली। दिन निकल आया था। वर्षा रुक ही नहीं रही थी। वहीं शौच से निवृत्त होकर चाय पी। मुझे एक अधिकारी से मिलने जाना था, पर स्टेशन से बाहर जाने का अवसर ही नहीं मिल रहा था।

दस बज गए तो वर्षा कुछ कम हुई। हिम्मत करके एक रिक्शा लिया। सीट भीगी थी। अतः तौलिया नीचे रखकर बैठ गया। रिक्शा आगे बढ़ा तो लग रहा था कि मैं रिक्शे में नहीं नाव पर बैठा हूँ। रिक्शे का आधा भाग जलमग्न सड़क पर तैर–सा रहा था।

सहसा सामने से एक ट्रक आया उससे पानी में जो हिलोर उठी उसने मुझे सिर से पैर तक स्नान करा दिया। दूसरे वस्त्र थे नहीं। उसी दशा में अधिकारी महोदय के घर पहुंचा तो वह कार्यालय जा चुके थे।

अब वहाँ रिक्शा भी नहीं था। किसी प्रकार भीगता–भागता कार्यालय पहुँचा तो पता चला अतिवृष्टि के कारण कार्यालय बन्द है। अब क्या हो ? दोपहर हो चुकी थी। उन के निवास पर जाना बेकार था। भूख भी लगी थी। पास ही जौहरी बाजार था।

वहाँ एक गली में जाकर पूड़ी–साग लेकर पेट पूजा की। अब वर्षा हल्की हो चुकी थी। मैं सिर पर तौलिया डालकर चल रहा था। वह पानी से तर हो जाती तो निचोड़कर उसे पुनः ओढ़ लेता। धीरे–धीरे वर्षा बन्द हुई। हल्की धूप खिली, हवा चली तो भीगे कपड़े सूखे। तब जान में जान आई। शाम को अधिकरी जी से उनके निवास पर मिला। वे भी अतिवृषि रहे थे।

अतिवृष्टि से हुआ विनाश–
चौबीस घंटे की वर्षा से बहुत विनाश हुआ था। कुछ मकान गिर गये थे और लोग उसमें दब गये थे। एक बालक नाले के तेज बहते पानी में बह गया था। निचले मकानों–दुकानों में पानी भरने से बहुत विनाश हुआ था। चारों ओर से ऐसी ही खबरें मिल रही थीं। सहायता के लिए चीख–पुकार भी मची थी।

उपसंहार–
वर्षा आवश्यक है। वह जीवनदायिनी होती है किन्तु जब वह अतिवृष्टि का स्वरूप ग्रहण कर लेती है तो लोगों का जीवन संकट में पड़ जाता है। व्यवस्था के अभाव में यह संकट और बढ़ जाता है।

--लक्ष्मी
(June 4, 2020)
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                      (साभार एवं सौजन्य-अभिव्यक्ती-हिंदी.ऑर्ग)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-30.12.2022-शुक्रवार.