निबंध-क्रमांक-127-रेल यात्रा पर निबंध

Started by Atul Kaviraje, January 03, 2023, 09:41:12 PM

Previous topic - Next topic

Atul Kaviraje

                                      "निबंध"
                                    क्रमांक-127
                                   ------------

मित्रो,

      आईए, पढते है, ज्ञानवर्धक एवं ज्ञानपूरक निबंध. आज के निबंध का शीर्षक है- "रेल यात्रा पर निबंध"

                                 "रेल यात्रा पर निबंध"
                                -------------------

     नगर में जन्म लेने के बावजूद मैट्रिकुलेशन तक मुझे कभी लंबी रेलयात्रा का शुभावसर प्राप्त न हो सका। इस बार जब मैंने कॉलेज में नाम लिखाया और काशी की बेहद प्रशंसा सुनी, तब मेरा मन वहाँ जाने के लिए मचल उठा। काशी के बारे में मैं भी जानता था कि यह भूतभावन परमकल्याणकारी त्रिशूलधारी विश्वनाथ महादेव की नगरी है, काशी चंद्रमौलि की कीर्तिकौमुदी से अहरह प्रकाशित होती रहती है। इसे ही वाराणसी कहते हैं-वरुण और असी नदियों के, गंगा के मिलन-बिंदु पर बसी वाराणसी 'यस्य क्वचित् गतिर्नास्ति तस्य वाराणस्यां गतिः' का उद्घोष करती है। सचमुच काशी-वाराणसी के माहात्म्य का ऐसा उदात्त वर्णन पुराणकार, श्रीहर्ष, तुलसीदास तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया है कि इस पूजावकाश में वहाँ की यात्रा मेरे लिए अनिवार्य बन गई।

     आश्विन का समशीतोष्ण महीना। कंधे पर झोला लटकाए मैं पटना जंक्शन के द्वितीय श्रेणी टिकटघर की ओर गया, क्योंकि यही अब तृतीय श्रेणी के बराबर है। राष्ट्रपिता बापू ने लिखा है कि वे रेलवे के तीसरे दर्जे में इसलिए सफर करते रहे कि उसमें चौथा दर्जा होता ही नहीं। यदि चौथा दर्जा होता, तो वे उसमें ही यात्रा करते। यह उनका जीवनसिद्धांत था, उनका सादा रहन-सहन था, किंतु मेरी विवशता थी, पॉकेट की तंगी थी। इसलिए मुझे इधर आना पड़ा था, नहीं तो मैं प्रथम श्रेणी में ही यात्रा करता। टिकट-खिड़की के सामने एक लंबी लाइन (क्यू) लगी थी। गाड़ी आने का समय निकट आता जा रहा था, लोगों के धीरज का बाँध टूटता जा रहा था। कुछ लोग रेलपेल कर आगे बढ़ जाना चाहते थे। मैं भी किसी तरह बीच में घुसा, शरीर की अनचाही मालिश करवाई, कमीज नुचवाई और किसी तरह टिकट लेकर पुल पर दौड़ता हुआ उस प्लेटफार्म पर आया, जहाँ दिन के बारह बजकर पंद्रह मिनट पर काशी जानेवाली अपर इंडिया एक्सप्रेस आनेवाली थी।

     सवा बारह क्या, सवा एक हो गया। गाड़ी नहीं आई। यात्री उत्सुक नेत्रों से अपनी प्रेयसी के आगमन की भाँति गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्लेटफार्म पर काफी भीड़ थी, जैसे किसी संपन्न व्यक्ति की बारात ठहरी हो। खोमचे और अखबारवाले रंग-बिरंगी आवाज में चिल्ला रहे थे। इसी बीच गाड़ी की घरघराहट सुनाई पड़ी। आकृतियाँ सूर्यमुखी-सी खिल उठीं, प्लेटफार्म के सागर में तूफान उठ आया।

     गाड़ी स्टेशन पर लगी क्या, चढ़ने-उतरनेवालों का मल्लयुद्ध शुरू हो गया। डिब्बे ठसाठस भरे थे। किसी तरह मैंने एक पावदान पर शरण पाई। गार्ड ने हरी झंडी दिखाई, सीटी मारी और गाड़ी प्लेटफार्म को उदास बनाती बढ़ चली। गाड़ी छकछक करती बढ़ी। सचिवालय का गुलाबी टावर दिखाई पड़ा, जिसके आगे देश पर कुर्बान होनेवाले वीरों का शहीद-स्मारक है। इसी सचिवालय में अधिकारियों की संचिकाओं में बिहार का भाग्य भटकता रहता है तथा विधानसभाओं के मखमली गद्दों पर जनता के प्रतिनिधि दंगल कर मंगल बनाते हैं। गाड़ी भागी जा रही है-फुलवारीशरीफ, दानापुर, नेउरा, सदीसोपुर, बिहटा, कोइलवर ! कोइलवर के पुल ने विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट किया। यह शोणनद पर बना पुल है। ब्रह्मलोक से जब देवी सरस्वती पृथ्वीतल पर उतरी थीं, तब उनका मन शोणतट का सौंदर्य देखकर इतना अभिभूत हो गया था कि उन्होंने यहीं विश्राम करने का निश्चय लिया। इस शोण के समक्ष उन्हें देवनदी मोक्षसरणि मंदाकिनी भी फीकी लगी थी। शोणनद वरुणदेव के हार के समान है,

     चंद्रपर्वत से झरते हुए अमृतनिर्झर के समान है, विंध्यपर्वत से बहते हए चंद्रकांतमणि के प्रवाह के सदृश है, दंडकारण्य के कर्पूवृक्ष से बहते कर्पूरी प्रवाह के समान है, दिशाओं के लावण्य-रस के सोते के समान है, आकाशलक्ष्मी के शयन के लिए स्फटिक के शिलापट्ट के समान है। मैं बाणभट्ट के 'हर्षचरित' की स्मृति के चित्रों को सँजो ही रहा था कि गाड़ी आरा स्टेशन पर आ लगी। पता नहीं, आरा नाम यहाँ के लोगों की बोली के रुखड़ेपन के कारण पड़ा या आक्रामकों के शिरःछेद के कारण-समझ नहीं पाता। सुना, यहीं स्वातंत्र्य-संग्राम के अमर सेनानी बाबू कुँवर सिंह ने साम्राज्यवाद का कालपाश फैलानेवाले अंगरेजों को कैद कर रखा था और उनके छक्के छुड़ाए थे।

     गाड़ी बेहताशा भागी जा रही थी। डिब्बे का शोरगुल थोड़ा कम हुआ। इस डिव का दखकर ही ऐसा मालूम पड़ता था कि भारत सचमच धर्मनिरपेक्ष राज्य हैं। हिंद, मुसलमान, सिक्ख-एक साथ बैठे चीनियाबादाम खाते, रामायण, कुरान-शरीफ और गुरुग्रंथसाहब पर प्रेमपूर्ण बातें करते जा रहे थे। बाहर जब नजर गई, तब लगा कि ट्रेन कई छोटे-छोटे स्टेशनों को बेरहमी से छोड़ती चली जा रही है। प्लेटफार्म पर मुसाफिर ऐसे दीनभाव से खड़े थे, जैसे उनके समक्ष अवसर का स्वर्णरथ आया और बिना कुछ लुटाए भाग गया। फिर रघुनाथपुर आया और गोस्वामी तुलसीदास की स्मृति ताजी हो उठी। कहा जाता है कि गोस्वामीजी की चरणधूलि इस स्थान को पवित्र कर गई थी। उसके बाद डुमराँव। लोगों ने बताया कि यहाँ एक बार पंजाबमेल की लोमहर्षक दुर्घटना हुई थी। न मालूम कितने व्यक्ति मौत के अंधे कुएँ में गिरे थे। कल्पना से जी सिहर उठता है और मुझे बाबा विश्वनाथ की याद हो आती है।

--सतीश कुमार
(मार्च 26, 2021)
-----------------

                        (साभार एवं सौजन्य-माय हिंदी लेख.इन)
                       -----------------------------------

-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-03.01.2023-मंगळवार.