निबंध-क्रमांक-128-रेल यात्रा पर निबंध

Started by Atul Kaviraje, January 04, 2023, 09:31:02 PM

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Atul Kaviraje

                                      "निबंध"
                                   क्रमांक-128
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मित्रो,

      आईए, पढते है, ज्ञानवर्धक एवं ज्ञानपूरक निबंध. आज के निबंध का शीर्षक है- "रेल यात्रा पर निबंध"

                                  "रेल यात्रा पर निबंध"
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     तब बक्सर आया। जी! सिद्धाश्रम। यहीं महर्षि विश्वामित्र ने महायज्ञ किया था और श्रीराम ने उनके यज्ञ की रक्षा करते हुए ताड़का-सुबाहु का वध किया था तथा मारीच को बाण की नोंक पर सैकड़ों मील दूर फेंक दिया था। उन्होंने यहीं गुरु को प्रसन्न कर बला और अतिबला नाम की दुर्लभ विद्याएँ पाई थीं। यहीं 22 अक्टूबर. 1764 के दिन शाहआलम, मीरकासिम और शुजाउदौला की सम्मिलित सेना अँगरेजों से पराजित हुई थी। यहीं भारत के भाग्य पर पूरी कालिमा छा गई और भारतमाता अँगरेजों के बंदीगह में पूरी तरह बंदिनी हो गई थीं। यही याद कर मेरे मन पर गहरा अवसाद छा गया। इतिहास के खंडहर में रेंगती हमारी दुर्गति की कहानियाँ बार-बार मेरे मन को कुरेदने लगीं।

     और, अब जैसा स्टेशन आया है। यहीं 26 जून, 1539 में हुमायूँ शेरशाह से पराजित होकर कन्नौज की ओर भागा था। गंगा में कूदते समय उसकी जान एक भिश्ती ने अपनी मशक की सहायता से बचाई थी। उपहार में उसे एक दिन का राज्य मिला था और उसने चमड़े का सिक्का चलाया था। काश! हमें भी एक दिन का राज्य मिल पाता-मन में लोभ हो आता है। चौसा के बाद ही कर्मनाशा नदी है। कहा जाता है कि यह स्वर्गकामी त्रिशंकु की टपकी लार से बनी है। बात सच्ची हो या झूठी, किंतु अभी तो यह बिहार और उत्तरप्रदेश के बीच संधिविच्छेद के चिह्न-सी है।

     चौसा के बाद गहमर । यहीं के सुप्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार गोपालराम गहमरी थे, जिन्होंने लगभग तीन सौ उपन्यास लिखे थे। इनके 'यमुना का खन', 'गेरुआ बाबा', 'डाइन की लाश', 'भूतों का डेरा', 'जवाहरात की चोरी' जैसे उपन्यास पढ़ें, तो कॉनन डॉयल के थ्रिलर भी फीके मालूम होंगे। गहमर के बाद भदौरा और भदौरा के बाद दिलदारनगर आ जाता है। कहा जाता है कि दिलदार साहब अठारहवीं शताब्दी के बड़े मशहूर आदमी थे और वे फुलवारीशरीफ के मुरीद थे। फिर कई छोटे-मोटे स्टेशनों को निष्ठुर नायिका की तरह छोड़ती हुई बेरहम गाड़ी मुगलसराय चली आती है। मुगलों के शासन की अनेक गमनाक कहानियाँ मानसपटल पर उभरती हैं। इसी बीच गाड़ी खुल जाती है।

     खिड़की के बाहर धानखेतों की बहार नजर आती है। उजली गायों और काली-काली भैसों की गंगा-जमुनी हरे मखमली खेतों की पृष्ठभूमि में बड़ी सुहानी लगती है। और, हाँ! देखते-देखते भूभाग धारण करनेवाले शेषनाग की उज्ज्वल केंचुल की तरह, सत्ययुग के रथ के धुरे की तरह, कैलाश रूपी हाथी की रेशमी पताका की तरह, पुण्यरूपी पण्य की विक्रयवीथि की तरह देवनदी गंगा दूज के चाँद की तरह नजर आने लगती है। फिर इंद्रधनुष की तरह, किसी कामिनी के भौंह-घुमाव की तरह तना मालवीय-सेतु आ जाता है।

     लगता है कि अब हमारे पुण्योदय की चिरप्रतीक्षित वेला आनेवाली है, हमारी आकांक्षाओं की पूर्तिवेला उपस्थित होने ही वाली है कि गाड़ी काशी स्टेशन पर खड़ी हो जाती है। जब भीड़ उँट जाती है, तब स्टेशन-गेट के बाहर आकर एक रिक्शे पर बैठ जाता हूँ। लाल गमछा कंधे पर लपेटे, गले में काली बद्धी बाँधे मस्त रिक्शावाला कह उठता है किधर बाबूजी!

'बाबा विश्वनाथ की गली' कहते ही मेरा ध्यान उनके दिव्य चरणों पर जा पहुँचना I

--सतीश कुमार
(मार्च 26, 2021)
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                      (साभार एवं सौजन्य-माय हिंदी लेख.इन)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-04.01.2023-बुधवार.