साहित्यशिल्पी-गुड़ियाएं कब तक नौंची जाएंगी ?-

Started by Atul Kaviraje, January 06, 2023, 09:41:09 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "गुड़ियाएं कब तक नौंची जाएंगी?"
 
               गुड़ियाएं कब तक नौंची जाएंगी ? [आलेख]- ललित गर्ग--
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     हमें उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर हम उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्तार तेज है और विवेक का नियंत्रण खोते चले जा रहे हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। हम जीने के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है।

     सवाल यह भी है कि सामूहिक बलात्कार के दौरान गुड़िया की मानसिक व शारीरिक स्थिति क्या रही होगी। हिमाचल की पुलिस ने आठ दिन में इस सनसनीखेज मामले का खुलासा तो किया लेकिन हवालात में ही एक आरोपी की हत्या दूसरे आरोपी द्वारा कर दी जाती है। इससे रहस्य गहरा गया। क्या मृतक आरोपी इस घटना के पूरे रहस्य जानता था या फिर वह सरकारी गवाह बनना चाहता था। इससे पहले कि वह कोई राज उगलता उसकी जुबां हमेशा-हमेशा खामोश कर दी जाती है।

     हर बार की घटना सवाल तो खडे़ करती हंै, लेकिन बिना उत्तर के वे सवाल वहीं के वहीं खड़े रहते हैं। यह स्थिति हमारी कमजोरी के साथ-साथ राजनीतिक विसंगतियों को भी दर्शाती है। राजनीतिक दल जब अपना राष्ट्रीय दायित्व नैतिकतापूर्ण नहीं निभा सके, तब सृजनशील शक्तियों का योगदान अधिक मूल्यवान साबित होता है। आवश्यकता है वे अपने सम्पूर्ण दायित्व के साथ आगे आयें। अंधेरे को कोसने से बेहतर है, हम एक मोमबत्ती जलाएं। अन्यथा वक्त आने पर, वक्त सबको सीख दे देगा। वक्त सीख दे उससे पहले हमें जाग जाना होगा, हम निर्भया के वक्त कुछ जागे थे, यही कारण है कि निर्भया केस के बाद देशव्यापी चर्चा के बाद कड़े कानून बनाये गये, निर्भया के बलात्कारियों को फांसी की सजा सुनाई गई। महिला सुरक्षा के मुद्दे पर बहुत कुछ किया गया। जघन्य अपराधों में लिप्त नाबालिगों को कड़ी सजा दिलाने के लिए भी केन्द्र सरकार ने कानून में संशोधन किया लेकिन न तो महिलाओं के प्रति दरिंदगी रुकी और न ही हिंसा। बल्कि कड़े कानूनों की आड में निर्दोष लोगों को फंसाने का ध्ंाधा पनप रहा है। जिसमें असामाजिक तत्वों के साथ-साथ पुलिस भी नोट छाप रही है। कानून तो केवल कागजों में बदलता है। उसे व्यवहार में लाने वाले पुलिस तंत्र का मिजाज रत्ती भर भी नहीं बदला है। पुलिस को संवेदनशील बनाने की कोई पहल की ही नहीं गई। महिलाओं के प्रति दरिंदगी उस मानसिकता की देन है जिसके तहत महिला को केवल मोम की वस्तु समझा जाता है। एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्ट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हार जाती है। आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। लेकिन यह कब संभव होगा?

     समाज के किसी भी एक हिस्से में कहीं कुछ जीवन मूल्यों, सामाजिक परिवेश जीवन आदर्शों के विरुद्ध होता है तो हमें यह सोचकर चुप नहीं रहना चाहिए कि हमें क्या? गलत देखकर चुप रह जाना भी अपराध है। इसलिये बुराइयों से पलायन नहीं, उनका परिष्कार करना सीखें। चिनगारी को छोटी समझ कर दावानल की संभावना को नकार देने वाला जीवन कभी सुरक्षा नहीं पा सकता। बुराई कहीं भी हो, स्वयं में या समाज, परिवार अथवा देश में तत्काल हमें अंगुली निर्देश कर परिष्कार करना चाहिए। क्योंकि एक स्वस्थ समाज, स्वस्थ राष्ट्र स्वस्थ जीवन की पहचान बनता है। हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए कि नारी के अपमान की एक घटना ने एक सम्पूर्ण महाभारत युद्ध की संरचना की और पूरे कौरव वंश का विनाश हुआ। गुड़िया जैसी मासूम बालिकाओं की अस्मिता को लूटना और उसे मौत के हवाले कर देने की घटनाएं कहीं सम्पूर्ण मानवता के विनाश का कारण न बन जाये।

--ललित गर्ग
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                   (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-06.01.2023-शुक्रवार.