साहित्यशिल्पी-सजीव व्यक्तित्व का साकार मूर्तिकार है शिक्षक

Started by Atul Kaviraje, February 07, 2023, 09:37:57 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "सजीव व्यक्तित्व का साकार मूर्तिकार है शिक्षक"

सजीव व्यक्तित्व का साकार मूर्तिकार है शिक्षक (5 सितंबर शिक्षक दिवस पर विशेष)- [आलेख]- डॉ. सूर्यकांत मिश्रा--
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     भारत वर्ष में स्वतंत्रता के कुछ वर्षों बाद तक शिक्षक समाज का अति महत्वपूर्ण अंग माना जाता था। अब वह बातें न जाने कहां खो गई। शिक्षकों का सम्मान अब केवल आयोजनों में ही दिखाई पड़ रहा है, अन्यथा शिक्षक की स्थिति और चतुर्थ वर्ग कर्मचारी जैसी होकर रह गयी है। क्या हमारा मानवीय समाज इस बात का इंकार कर सकता है कि एक कुशल शिक्षक ही अच्छे विद्यार्थियों का जन्मदाता होता है। बच्चों को शिक्षित करने अथवा शिक्षा देने के लिए मूलभुत सुविधा के रूप में स्कूल भवन, बैठने के लिए कुर्सियां, ब्लैक बोर्ड आदि न हो तो भी काम चल सकता है, किंतु कल्पना कीजिए इन सारी व्यवस्था के सुचारू होने के बावजूद यदि एक अच्छा शिक्षक नहीं है, तो व्यवस्था किस काम की। शिक्षक के बिना हम किसी भी प्रकार की शिक्षा की कल्पना शायद नहीं कर सकते है। बिना वशिष्ट या विश्वामित्र के राम, या बिना द्रोणाचार्य के भीष्म एवं कृष्ण के अर्जुन या बिना परशुराम के भीष्म स्वयं अथवा बिना अरस्तु के सिकंदर का जन्म केवल सपना ही न रह जाता? एक अच्छा शिक्षक बिना बोले अपना चरित्र-व्यक्तित्व से पढ़ाता है, उसकी बात नहीं जीवनशैली अधिक प्रभावशाली होती है। हमनें वह समय भी देखा है जब डॉक्टर, जज, कलेक्टर, मंत्री सभी उठकर अपने शिक्षक का स्वागत किया करते थे। सभा एवं सार्वजनिक स्थलों पर उन्हें ऊंचा आसन मिला करता था। यदि राजा को पांच बार प्रणाम किया जाता तो एक गुरू अथवा शिक्षक को उससे भी अधिक बार सम्मान देने का रिवाज था। अब ऐसी बात नहीं रही। आखिर क्यों? इस पर भी चिंतन जरूरी है।

     यह सर्व विदित है कि शिक्षक बनते ही व्यक्ति पर नैतिकता का एक मुलंम्मा अपने आप चढ़ जाता है। एक शिक्षक द्वारा किया जाने वाला कार्य आदर्शों की कसौटी पर तौला जाने लगता है। एक शिक्षक को सदैव मानसिक दबाव में जीवन यापन करना पड़ता है। पूरा मानवीय समाज ईमानदारी और सच्चाई की प्रतिमूर्ति के रूप में एक शिक्षक को ही देखना चाहता है। दूसरी ओर मान सम्मान तथा सेवाभाव का जो दृष्टिकोण पहले शिक्षकों के प्रति हुआ करता था, वह अब पूरी तरह बदल गया है। 'बिन गुरू ज्ञान नहीें' इसे भी अब गलत कहा जाने लगा है। जटिल होते जीवन संघर्ष में यदि एक शिक्षक श्रम-साध्य सहारे का आसरा न ले तो वह हर मोर्चे पर असफल ही रहेगा। इसीलिए उसे विवशता में ट्युशन का सहारा लेना पड़ता है, जिसे समाज बुरी दृष्टि से देखता है। मानवीय समाज में नौकरी पेशा से लेकर व्यापारियों तक भ्रष्टाचार में लिप्त होना और सरकार के राजस्व का नुकसान करना बड़ा अपराध नहीं माना जा रहा है, किंतु शिक्षक का ट्युशन पढ़ाना सिद्धांत के खिलाफ माना जा रहा है।

     नि:संदेह आज के हालात में शिक्षकों के सिर पर दोहरी जिम्मेदारी है। एक तो स्वयं के स्वरूप को इस भौतिकता की अंधी दौड़ में बचाये रखना है, साथ ही छात्रों अथवा अपने सानिध्य में शिक्षा ग्रहण कर रहे लोगों को नई रोशनी में संस्कारशील होने का न केवल पाठ पढ़ाना है, वरन उसे दिशा में प्रशस्त करने कठिन दौर से भी गुजरना होता है। आज देश में भाषा, क्षेत्र तथा जाति के नाम पर टकराव की प्रवृत्तियां जन्म ले रही है। ऐसे में यदि शिक्षक भावी नागरिकों को दिशा ज्ञाान तथा सामान्य कर्तव्य बोध के साथ राष्ट्रीयता का पाठ न पढ़ाये तो भारतवर्ष का भविष्य अंधेरी कोठी में गुम हो जायेगा।

--(डॉ. सूर्यकांत मिश्रा)
राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
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                      (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-07.02.2023-मंगळवार.
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