साहित्यशिल्पी-तिरंगा को दलगत राजनीति से धुंधलाना !

Started by Atul Kaviraje, February 08, 2023, 09:39:23 PM

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Atul Kaviraje

                                    "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "तिरंगा को दलगत राजनीति से धुंधलाना !"

         तिरंगा को दलगत राजनीति से धुंधलाना !- [आलेख]- ललित गर्ग--
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     भारत का राष्ट्रीय झंडा, भारत के लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिरूप है। यह राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है। हमने अपनी आजादी की लड़ाई इसी तिरंगे की छत्रछाया में लड़ी। विडंबना यह है कि अनगिनत कुर्बानियों के बाद हमने आजादी तो हासिल कर ली, शासन चलाने के लिए अपनी जरूरत के हिसाब से संविधान भी बना लिया, लेकिन अपने राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय गीत एवं राष्ट्रीय पर्व को अपेक्षित सम्मान नहीं दे पाएं हैं। कितने ही स्वप्न अतीत बने। कितने ही शहीद अमर हो गए। कितनी ही गोद खाली और मांगंे सूनी हो गईं। कितने ही सूर्य अस्त हो गए। कितने ही नारे गूँजे-- "स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है", "वन्दे मातरम्", "भारत छोड़ो", "पूर्ण-स्वराज्य", "दिल्ली चलो"- लाल किले पर तिरंगा फहराने के लिए यह सब हुआ। आजादी का प्रतीक बन गया था - हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा। इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस मनाते हुए राष्ट्रीय प्रतीकों विशेषतः राष्ट्रीय ध्वज को फहराने की बात को लेकर जिस तरह की विरोधाभासी दलगत एवं स्वार्थ-संकीर्ण राजनीतिक कुचालों को चलाकर जो माहौल बनाया गया है, वह अराष्ट्रीयता का द्योतक है। आखिर क्यों झंडा फहराने के नाम पर घटिया एवं विध्वंसक राजनीति की जा रही है ? क्या राष्ट्रीय प्रतीक के नाम पर ही राजनीति चमकाना शेष रह गया है?

     क्या किसी ने सोचा था कि इन राष्ट्रीय पर्वों एवं प्रतीकों का महत्त्व इतनी जल्दी कम हो जाएगा? आज जबकि समाज विघटन एवं अनगिनत समस्याओं की कगार पर है। जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा जैसे सवालों ने अपने जहरीले डैने पसार रखे हैं। हिंसक वारदातां, प्राकृतिक आपदाओं एवं चारित्रिक अवमूल्यन की त्रासद घटनाओं से देश का हर आदमी सहमा-सहमा-सा है। मर्यादाओं के प्रति आस्था लड़खड़ाने लगी है। संस्कृति और परम्परा मात्र आदर्श बनकर रह गये हैं। जीवन मूल्यों की सुरक्षा में कानून और न्याय कमजोर पड़ने लगे हैं। राजनीति में घुस आये स्वार्थी तत्वों ने लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा को धूमिल कर दिया है। इन जटिल से जटिलतर होते हालातों के दौर में हमारे राष्ट्रीय पर्वों एवं प्रतीकों की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। ये हमें न केवल एकता के सूत्र में बांधते हैं, बल्कि सवालों-वादों के खतरों के प्रति सचेत भी करते हैं। राष्ट्रीय पर्व एवं प्रतीक हमें सिर्फ इस बात का अहसास नहीं कराते कि अमुक दिन हमने अंग्रेजी हुकूमत से आजादी हासिल की थी या अमुक दिन हमारा अपना बनाया संविधान लागू हुआ था, बल्कि ये हमारी उन सफलताओं की ओर इशारा करते हैं जो इतनी लंबी अवधि के दौरान जी-तोड़ प्रयासों के फलस्वरूप मिलीं। ये हमारी विफलताओं पर भी रोशनी डालते हैं कि हम नाकाम रहे तो आखिर क्यों! क्यों हम पर्वों एवं प्रतीकों को उतना महत्त्व नहीं दे सके।

     यह जानबूझकर विवाद खड़े करने की मानसिकता को ही उजागर करता है कि जहां मदरसों में तिरंगा फहराने की इस वर्ष के परम्परागत आदेश को राजनीतिक रंग दे दिया गया। जबकि मध्यप्रदेश मदरसा बोर्ड के अध्यक्ष प्रोफेसर सय्यद इमादउद्दीन ने इसे नियमित आदेश बताया है। उत्तर प्रदेश के बाद मध्यप्रदेश में जारी किये गये इस तरह के आदेश को एक तुगलकी फरमान की संज्ञा देना हमारी संकीर्ण राजनीति को पोषित करने की कुचेष्टा ही कहा जायेगा। इन आदेशों में अक्सर आयोजन की फोटो अपलोड किए जाने की बात कही जाती है, जिससे इन अच्छे कार्यों के लिए पुरस्कृत किए जाने की सतत् प्रक्रिया को न्यायपूर्ण एवं निष्पक्ष तरीके से संचालित किया जा सके है। राष्ट्रीय पर्व मनाने एवं राष्ट्रीय ध्वज फहराने के नाम पर जिस तरह का भयानक एवं दुर्भाग्यपूर्ण वातावरण निर्मित किया गया, वह हमारे राजनीतिक स्वार्थों की चरम परकाष्ठा है।

--ललित गर्ग
मौसम विहार, दिल्ली
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                      (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-08.02.2023-बुधवार.
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