साहित्यशिल्पी-एक बार पुन: बुद्धम् शरणम् [बुद्ध-पूर्णीमा पर विशेष आलेख]

Started by Atul Kaviraje, February 20, 2023, 10:13:05 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "एक बार पुन: बुद्धम् शरणम् [बुद्ध-पूर्णीमा पर विशेष आलेख]"

  एक बार पुन: बुद्धम् शरणम् [बुद्ध-पूर्णीमा पर विशेष आलेख]- राजीव रंजन प्रसाद--
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     बौद्ध धर्म के उत्थान और उसके स्वर्णयुग पर अनेको विमर्श उपलब्ध हैं, तथापि समय है पलट कर देखने का कि इतनी समृद्ध विरासत आखिर मिटने की कगार तक कैसे पहुँची थी? मुझे महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन की पुस्तक "बौद्ध संस्कृति" के पृष्ठ 67 में यह विवरण प्राप्त हुआ जिस पर विमर्श होना चाहिये – "भारतीय जीवन के निर्माण में इतनी देन दे कर बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हो गया, इससे किसी भी सहृदय व्यक्ति को खेद हुए बिना नहीं रहेगा। उनके लुप्त होने के पीछे कई भ्रांतिमूलक धारणायें फैली हैं। कहा जाता है शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म को भारत से निकाल बाहर किया। किंतु शंकराचार्य के समय आठवीं सदी में बौद्ध धर्म लुप्त नहीं प्रबल होता देखा गया है। यह नालंदा के उत्कर्ष तथा विक्रमशिला की स्थापना का काल था। आठवी सदी में ही पालों जैसा शक्तिशाली बौद्ध राजवंश स्थापित हुआ था। यही समय है जब कि नालंदा नें शांतरक्षित, धर्मोत्तर जैसे प्रकाण्ड दार्शनिक पैदा किये। तंत्र मत के सार्वजनिक प्रचार के कारण भीतर में निर्बलतायें भले ही बढ़ रही हों किंतु जहाँ तक विहारों और अनुयाईयों की संख्या का प्रश्न है, शंकराचार्य के चार सदियों बाद बारहवीं सदी के अंत तक बौद्धों का ह्रास नहीं हुआ था। उत्तरी भारत का गहड़वार वंश केवल ब्राम्हण धर्म का ही परिपोषक नहीं था बल्कि वह बौद्धों का भी सहायक था.....स्वयं शंकराचार्य की जन्म भूमि केरल भी बौद्ध शिक्षा का बहिष्कार नहीं कर पायी थी, उसने तो बल्कि बौद्धों के 'मंजूश्री मूलकल्प' को रक्षा करते हुए हमारे पास तक पहुँचाया। वस्तुत: बौद्ध धर्म को भारत से निकालने का श्रेय अथवा अयश किसी शंकराचार्य को नहीं है"।

     विमर्श के लिये हमें उन चार बौद्ध सभाओं के निष्कर्षों पर हमें दृष्टिपात करना चाहिये जिसने बौद्ध धर्म की परिपाटी बनायी। पहली बौद्ध सभा राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में सम्पन्न हुई जिसमें पाँच सौ प्रमुख भिक्षुओं ने भाग लिया। यहाँ भगवान बुद्ध के भाषणों, वार्तालापों तथा प्रवचनों को संकलित किया गया था। दूसरी बौद्ध सभा वैशाली में इसके लगभग सौ वर्ष पश्चात हुई जहाँ विचारकों के मध्य मतभेद खुल कर उजागर हुए। वैशाली के बौद्ध भिक्षुओं ने कुछ एसी प्रथाओं को मान लिया जो विनयपिटिक से विपरीत थी। अत्यधिक विवाद उत्पन्न हुआ जिसके पश्चात भिक्षु पहली बार दो भागों में विभाजित हुए पहले थे परिवर्तन पक्षीय अर्थात महासंघिक एवं दूसरे परिवर्तन विरोधी अर्थात स्थविर। तीसरी बौद्ध सभा अशोक के शासनकाल में पाटलीपुत्र में सम्पन्न हुई तथा सहमतियों की कोशिश करते हुए प्रथम दो पिटकों की धार्मिक तथा दार्शनिक व्याख्या करते हुए नये पिटक का निर्माण किया गया जिसे 'अभिधम्मपिटक' कहा गया। सम्राट कनिष्क के शासनकाल में चौथी बौद्ध सभा कश्मीर के कुण्डलवन में आयोजित की गयी; यहाँ प्रतीत होता है कि वैचारिक भिन्नताओं का महामंथन हुआ होगा किस कारण तीनो पिटकों के तीन महाभाष्यों की रचना हुई। इसी समय बौद्ध धर्म महायान तथा हीनयान सम्प्रदायों में विभाजित हो गया।

     हीनयान बुद्ध को मानव मानते हुए इस धर्म के शुद्ध एवं प्रारंभिक रूप को ही मानयता देता है जबकि महायान के संस्थापक नागार्जुन बताये जाते हैं जो बुद्ध को दिव्य आत्मा, ईश्वर अथवा ईश्वर का अवतार मानते हैं। महायान सम्प्रदाय ने मूर्तिपूजा को मान्यता प्रदान की। चतुर्थ संगति में महायान सम्प्रदाय की सर्वश्रेष्ठता की घोषणा सम्राट कनिष्क ने की थी। महायान सम्प्रदाय ने संस्कृत भाषा को अपनाया। इस सम्प्रदाय के प्रमुख विद्वानों में नागार्जुन, पार्श्व, अश्वघोष, वसुमित्र आदि गिने जाते हैं। महायान मत का इस तीव्रता से प्रचार हुआ कि देखते ही देखते अनुयाईयों की संख्या करोडों में पहुँच गयी। तिब्बत, चीन, जापान तथा मध्य एशिया में महायान सम्प्रदाय की व्यापक पैठ बन गयी। यह कटु सत्य है कि राजाश्रय एवं प्रसार के अभाव तथा भव्यता-विहीनता के कारण हीनयान धीरे-धीरे व स्वत: पतनोन्मुख होने लगा था।

--राजीव रंजन प्रसाद
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-20.02.2023-सोमवार. 
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