साहित्यशिल्पी-मजदूरीनामा [आलेख]

Started by Atul Kaviraje, February 23, 2023, 09:45:17 PM

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Atul Kaviraje

                                    "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "मजदूरीनामा [आलेख]"

                          मजदूरीनामा [आलेख]- के. ई. सैम--
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     तभी तो आज भी मजदूरों की जिंदगी में कोई बुनियादी फर्क नहीं हुआ है. थोड़े से पैसे उन्हें अधिक अवश्य मिल जाते हैं, पर वर्तमान समय में रूपये के अवमूल्यन के हिसाब से वही कमाई है, जो पहले थी. वरना आज मजदूर भी महलों में रहते. कारों में घूमते. उनके बच्चे भी आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर अमीरों की बराबरी कर सकते. परन्तु एक सोची समझी साजिश के तहत बराबरी और समानता के ढोंगी समाज के द्वारा उन्हें उतना ही दिया जाता है कि जिससे वे किसी तरह अपने पेट को रूखे सूखे अनाजों से भर लें. और आदिकाल से एक सोची समझी साजिश के तहत उन्हें सुविधाओं से वंचित करके रखा गया है. क्योंकि यदि मजदूर, गरीब रहेंगे तभी अमीरों की अमीरी भी बनी रहेगी. गरीब हैं तभी अमीर भी हैं. अमीर अपनी अमीरी को कायम रखने के लिए गरीब की गरीबी का मोहताज है. वरना यदि गरीब सुविधायुक्त हो जाएँगे तो वो सुखी संपन्न हो जाएँगे. और जब वे सुखी संपन्न हो जाएँगे, सक्षम हो जाएँगे, तो वे गरीब, मजदूर, कहाँ रहेंगे.

     और अगर गरीब, मजदूर नहीं रहेंगे, तो फिर अमीर कैसे अमीर रहेंगे. फिर उनकी सूखी फुटानियों को कौन बर्दाश्त करेगा. फिर उनकी सेवा में कौन लगा रहेगा? किसे फिर वे अपनी अमीरी, शान व शौकत धन दौलत को दिखायेंगे. फिर उनसे कौन डरेगा? फिर वे किसे झुकायेंगे? किस पर रौब गाठेंगे? इसीलिए मई दिवस एक सांकेतिक दिवस है. वास्तव में वर्ष का हरेक दिन मई दिवस है. हर दिन हजारों गरीब, मजदूर सुविधा के अभाव में, धन-दौलत के अभाव में मर रहे हैं. वस्तुतः अमीरों के हाथों अप्रत्यक्ष रूप से मारे जा रहे हैं. हाँ यह अलग बात है कि मई दिवस की तरह गोलियों की आवाजें नहीं आती हैं. उनकी मौतों की ख़बरें नहीं आती हैं. वे कहीं किसी अँधेरे कोने में सिसक-सिसक कर मर रहे हैं. न जाने कब "अँधेरे कोने" से उनकी मौतों की आवाजें आम लोगों के, सामर्थवानों के कानों से गुजरकर उनकी अंतर्रात्मा को झिझोड़ेगी. न जाने कब उनकी जिन्दगी अँधेरे कोने से निकल कर उजाले में चमकेगी. पता नहीं! दुनिया के हर कोने में मजदूरों की दशा दयनीय है. उनके कल्याण हेतु सामंतवादियों, धनवानों के द्वारा बस थोड़ी सी सहायता कर खानापूर्ति कर दी जाती है. और उसमे भी सहानुभूति, अपनत्व, प्रेम की अपेक्षा एहसान का भाव अधिक होता है. मजदूर ही लूटे जाते हैं, सताये जाते हैं, मारे जाते हैं. धनवानों के द्वारा उन्हीं का अधिकार छीना जाता है. और उलटे उन्हीं पर एहसान भी थोपा जाता है. इतने वर्षों के बाद भी मजदूरों की स्थिति यथावत है. साल का हरेक दिवस मई दिवस बन कर रह गया है. इसलिए अब मई दिवस की सार्थकता ख़त्म हो गई है. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि " अजब करते हो तुम यारो, ये क्या बात करते हो, हमें ही लूटते हो और हमें खैरात करते हो".

--के. ई. सैम
स्वतंत्र पत्रकार
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                      (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-23.02.2023-गुरुवार.
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