ऑल इंडिया ब्लॉगर्स असोसिएशन-निराला युगसे आगे-हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा-अगीत

Started by Atul Kaviraje, March 08, 2023, 10:38:39 PM

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Atul Kaviraje

                               "ऑल इंडिया ब्लॉगर्स असोसिएशन"
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मित्रो,

     आज सुनते है, "ऑल इंडिया ब्लॉगर्स असोसिएशन" इस ब्लॉग के अंतर्गत, एक लेख/कविता.

              निराला युग से आगे---हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा---"अगीत"--
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निराला युग से आगे---हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा---"अगीत" .... डा श्याम गुप्त ..
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            कविता---पूर्व-वैदिक युग... वैदिक युग.... पश्च-वैदिक युग  व पौराणिक काल में वस्तुतः मुक्त-छन्द ही थी। वह ब्रह्म की भांति स्वच्छंद व बन्धन मुक्त ही थी। आन्चलिक गीतों, ऋचाओं, छन्दों, श्लोकों व विश्व भर की भाषाओं में अतुकान्त छन्दकाव्य आज भी विद्यमान है। कालान्तर में मानव-सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश, ज्ञानान्डंबर, सुखानुभूति-प्रीति हित; सन्स्थाओं, दरवारों, मन्दिरों, बन्द कमरों में काव्य-प्रयोजन हेतु, कविता छन्द-शास्त्र व अलन्करणों के बन्धन में बंधती गई तथा उसका वही रूप प्रचलित व सार्वभौम होता गया।  इस प्रकार वन-उपवन में स्वच्छंद विहार करने वाली कविता-कोकिला, वाटिकाओं, गमलों, क्यारियों में सजे पुष्पों पर मंडराने वाले भ्रमर व तितली होकर रह गयी। वह प्रतिभा प्रदर्शन व गुरु-गौरव के बोध से, नियन्त्रण व अनुशासन से बोझिल होती गयी और स्वाभाविक, ह्रदय स्पर्शी, स्वभूत, निरपेक्ष कविता;  विद्वतापूर्ण व सापेक्ष काव्य में परिवर्तित होती गयी, साथ ही देश, समाज़, राष्ट्र, जाति भी बन्धनों में बंधते गये। स्वतन्त्रता पूर्व की कविता यद्यपि सार्वभौम प्रभाववश छन्दमय ही है तथापि उसमें देश, समाज़, राष्ट्र को बन्धन मुक्ति की छटपटाहत व आत्मा को स्वच्छंद करने की, जन-जन प्रवेश की इच्छा है। निराला जी से पहले भी आल्हखंड के जगनिक, टैगोर की बांग्ला कविता, प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, हरिओध, पन्त आदि कवि सान्त्योनुप्रास-सममात्रिक कविता के साथ-साथ; विषम-मात्रिक-अतुकान्त काव्य की भी रचना कर रहे थे, परन्तु वो पूर्ण रूप से प्रचलित छन्द विधान से मुक्त, मुक्त-छन्द कविता नहीं थी।
यथा---
"दिवस का अवसान समीप था,
गगन भी था कुछ लोहित हो चला;
तरु-शिखा पर थी अब राजती,
कमलिनी कुल-वल्लभ की विभा। "
                 -----अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिओध'

"तो फ़ि क्या हुआ,
सिद्ध राज जयसिंह;
मर गया हाय,
तुम पापी प्रेत उसके। "
                           ------मैथिली शरण गुप्त

"विरह, अहह, कराहते इस शब्द को,
निठुर विधि ने आंसुओं से है लिखा। "
                            -----सुमित्रा नन्दन पन्त

                इस काल में भी गुरुडम, प्रतिभा प्रदर्शन मे संलग्न अधिकतर साहित्यकारों, कवियों, राजनैतिज्ञों का ध्यान राष्ट्र-भाषा के विकास पर नहीं था। निराला ने सर्वप्रथम बाबू भारतेन्दु व महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को यह श्रेय दिया। निराला जी वस्तुत काव्य को वैदिक साहित्य के अनुशीलन में, बन्धन मुक्त करना चाहते थे ताकि कविता के साथ-साथ ही व्यक्ति , समाज़, देश, राष्ट्र की मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त हो सके। "परिमल" में वे तीन खंडों में तीन प्रकार की रचनायें प्रस्तुत करते हैं। अन्तिम खंड की रचनायें पूर्णतः मुक्त-छंद कविताएं हैं। हिन्दी के उत्थान, सशक्त बांगला से टक्कर, प्रगति की उत्कट ललक व खडी बोली को सिर्फ़ ' आगरा ' के आस-पास की भाषा समझने वालों को गलत ठहराने और खड़ी बोली की,  जो शुद्ध हिन्दी थी व राष्ट्र भाषा होने के सर्वथा योग्य, उपयुक्त व हकदार थी,  सर्वतोमुखी प्रगति व बिकास की ललक में निराला जी कविता को स्वच्छंन्द व मुक्त छंद करने को कटिबद्ध थे। इस प्रकार मुक्त-छंद, अतुकान्त काव्य व स्वच्छद कविता की स्थापना हुई।

--shyam gupta
(रविवार, 27 नवंबर 2011)
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   (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-allindiabloggersassociation.blogspot.com)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-08.03.2023-बुधवार.
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