स्वर्ण गौरी व्रत: -२६ अगस्त, मंगलवार-

Started by Atul Kaviraje, August 27, 2025, 11:30:09 AM

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Atul Kaviraje

स्वर्ण गौरी व्रत-

स्वर्ण गौरी व्रत: एक भक्तिपूर्ण और विस्तृत विवेचन-

आज, २६ अगस्त, मंगलवार को, हम स्वर्ण गौरी व्रत का पावन पर्व मना रहे हैं। यह व्रत विशेष रूप से दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में मनाया जाता है, जो भगवान शिव और माता पार्वती के अटूट प्रेम और समर्पण का प्रतीक है। इस दिन महिलाएँ माता पार्वती की पूजा कर अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं।

१. स्वर्ण गौरी व्रत का अर्थ और महत्व
स्वर्ण गौरी का अर्थ है सोने जैसी चमक वाली देवी पार्वती। यह व्रत भगवान शिव और माता पार्वती के पुनर्मिलन का जश्न मनाता है।

यह माना जाता है कि इसी दिन माता पार्वती ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की थी, जिससे उन्हें 'स्वर्ण' जैसी चमक प्राप्त हुई। इस व्रत को करने से महिलाएँ भी माता गौरी की तरह सौभाग्य और तेज प्राप्त करती हैं।

यह व्रत मुख्य रूप से नवविवाहित महिलाओं और उन महिलाओं द्वारा किया जाता है जो अपने वैवाहिक जीवन में सुख और समृद्धि चाहती हैं।

२. पूजा विधि और तैयारी
यह व्रत हरतालिका तीज के साथ या उसके एक दिन बाद मनाया जाता है।

सुबह जल्दी उठकर स्नान किया जाता है और साफ-सुथरे कपड़े पहने जाते हैं।

पूजा के लिए एक मूर्ति स्थापित की जाती है, जो अक्सर माता पार्वती की होती है। इसे सोने के आभूषणों से सजाया जाता है, इसीलिए इसका नाम 'स्वर्ण गौरी' है।

पूजा स्थल को फूलों और आम के पत्तों से सजाया जाता है।

एक कलश स्थापित किया जाता है, जिसमें पानी, सुपारी और सिक्का रखा जाता है।

३. उपवास के नियम
यह उपवास भी निर्जला (बिना पानी के) या निराहार (बिना भोजन के) किया जा सकता है, जो व्यक्ति की क्षमता पर निर्भर करता है।

पूजा के बाद, महिलाएँ व्रत कथा सुनती हैं और रात भर जागरण करती हैं।

व्रत का पारण अगले दिन सुबह किया जाता है, जब पूजा के बाद प्रसाद खाया जाता है।

४. सोलह श्रृंगार और उनका महत्व
इस दिन महिलाएँ सोलह श्रृंगार करती हैं, जो भारतीय संस्कृति में सौभाग्य का प्रतीक है।

ये श्रृंगार केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि आध्यात्मिक महत्व भी रखते हैं। मेंहदी, चूड़ियाँ, सिंदूर, बिंदी और अन्य आभूषणों से सजी महिलाएँ माता पार्वती का रूप मानी जाती हैं।

५. कथा और पौराणिक महत्व
इस व्रत की कथा भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह से जुड़ी हुई है।

कथा के अनुसार, माता पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए वर्षों तक तपस्या की, जिसके बाद शिवजी ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया।

यह व्रत महिलाओं को सिखाता है कि प्रेम और निष्ठा से हर मुश्किल को पार किया जा सकता है।

६. सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
यह व्रत परिवार में खुशियाँ और एकता लाता है।

महिलाएँ और लड़कियाँ एक साथ मिलकर पूजा करती हैं, गाने गाती हैं और एक-दूसरे के साथ समय बिताती हैं।

इस दिन रिश्तेदारों और दोस्तों को भी बुलाया जाता है, जिससे सामाजिक रिश्ते मजबूत होते हैं।

७. प्रसाद और भोग
पूजा के बाद विभिन्न प्रकार के पकवान और मिठाई बनाई जाती है।

प्रसाद में नारियल, फल, मीठे व्यंजन और विशेष पकवान शामिल होते हैं।

यह प्रसाद परिवार के सदस्यों और पड़ोसियों के बीच बाँटा जाता है।

८. पूजा सामग्री और साज-सज्जा
पूजा में उपयोग होने वाली सामग्री में फूल, बेलपत्र, धतूरा, फल, नारियल, घी, कपूर, अगरबत्ती और हल्दी-कुमकुम शामिल होते हैं।

माता गौरी की मूर्ति को सोने के आभूषणों, लाल साड़ी और फूलों की माला से सजाया जाता है।

९. आधुनिक युग में व्रत
आज के समय में, कामकाजी महिलाएँ भी यह व्रत करती हैं।

आधुनिक तकनीक का उपयोग करके ऑनलाइन व्रत कथाएँ और पूजा के वीडियो देखे जाते हैं, जिससे यह व्रत और भी सुलभ हो गया है।

१०. निष्कर्ष
स्वर्ण गौरी व्रत सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि प्रेम, समर्पण और पारिवारिक एकता का प्रतीक है।

यह महिलाओं को सशक्त बनाता है और उन्हें अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़े रखता है।

--संकलन
--अतुल परब
--दिनांक-26.08.2025-मंगळवार..
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