एक दुर्लक्षित सुंदरी

Started by amoul, November 14, 2011, 10:46:04 AM

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amoul

जे   डोळ्यांना  भावतं  ते  आणि  तेच  सुंदर  मानणारे  आपण  विसरून  जातो  कि  सुंदरता  त्यापलीकडेही  असते,
हि   कविता  तश्याच  एका  सुंदरीची  जिचं  सुंदरपण  तिच्या  दिसण्यात  नव्हतं तर  कर्तबगारीत  होतं,
एका   मोठ्या  हुद्द्यावर  काम  करणारा  माणूस  जेव्हा  कोरा  चेहरा  घेऊन  जगतो  तेव्हा  आपण  त्याला  कामाचा   ताण म्हणतो,
किंवा   त्यालाच  कर्तबगार  म्हणतो,  जवाबदार  म्हणतो,  हि  कविता  तश्याच  प्रकारे  जगणाऱ्या  एका  स्त्रीची  मग  आपण  तिला  सुंदर  का  म्हणू  नये ?
विश्वास  ठेवा   लचकणारी  कंबर  सुंदर  असतेच  पण  त्याहून  सुंदर  असते  घराचा   भार  सोसणारी  कंबर,  बाकी  तुम्ही   हुशार  आहातच.




तिचं  कुणी  नव्हतं  आणि   तीही  नव्हती  कुणाची,
ती  एकलीच   जगायची  ती  शक्ती  होती  मौनाची.

ती  स्वतःत  विस्कटलेली  इतरांकडे  लक्ष  नसायचा  तिचा,
तिला   गरज  होती  तेव्हा  कोणी  हातही  नव्हता मदतीचा.

निरागसपणा  चेहऱ्यावर  नव्हता  एक  राठपणा   आलेला,
पाठीवर   आभाळ  पेलून  तिचा  ताठ  कणाझालेला.

ती   चेहरा  वैगरे  झाकत  नसे  उन्हाला घाबरून  बिबरुन,
उन्हालाच  घाम   फुटायचा  तिच्या  जवळ   आल्यावर  दरदरून.

तीही   होती  कधी  अल्लड , नाजूक ,  अगदी  मऊशार,
परिस्थितीच  करते  असा  कापसालाही  पेटता  अंगार.

तिला  लपून  बघायचीही   फारफार  भीती   वाटते,
आग  किती  भयाण  असते  हे  तिला  पाहिल्यावर  पटते.

ती  हसतच  नाही  कुणाशी  अगदी  रुक्ष  वाटते,
गर्दीत   उभी  असताना  अंधारातला वटवृक्ष  वाटते.

स्वतःला  जपताच   नाही  आलं  तिला  इतरांना  जपता  जपता,
घर   सुखात  ठेवण्यासाठी  तिचा  आनंदच हरवला  होता.

ती   जगत  होती  तिच्या  मागे  घेऊन  तिची  निंदा,
दोन   लहानग्या  पोटासकट अख्ख्या  घराची  पोशिंदा.

सुनं कपाळ , मोकळा  गळा ,  साधी  सलवार ,  हातात  रुमाल,
ती   रेखून  करत  होती  विस्कटलेल्या  आयुष्याची  वाटचाल.

तसं  सारंकाही  होतं  तिच्याजवळ   जे  लागतं   जगण्यासाठी,
नव्हती   ती  केवळ  तिला  आपलं  म्हणणारी  नाती.

मनाला  घालून  मर्यादा , बांधून  चौकट   ती  जगत  होती  कलंदर. 
सगळे   म्हणतात  तिला  राबस  पण  मला  दिसते   ती  सुंदर.

................अमोल

Pournima


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