का जगणं राहून गेलंय..

Started by Rohit Dhage, December 01, 2011, 11:33:23 PM

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Rohit Dhage

का श्वास घेणं पण अवघड झालंय
का कुणी आवडणं पण बंद झालंय..
स्वतःचेच चाहते होतो कुण्या काळी
का आज स्वतःचच ओझं झालंय
             काय  सलतंय पण कळत नाहीये
             काय जळतंय का दिसत नाहीये
              किती दिवस असाच जगत राहणार
             अश्या जगण्यात जगणं पण दिसत नाहीये
का अडतोय श्वास माझा
कुठे  गेला निवांत क्षण माझा
का शोधतोय मी तो सुद्धा
का नाही मी मनाचा  राजा
           का एवढं निरस झालंय आयुष्य माझं
           एवढा  दिशाहीन मी कधीच नव्हतो
           आला दिवस ढकलायचा माहित नव्हता
           मग अलीकडचे दिवस  असे का पाहतो
कसली उमेद असायची त्या जगण्यात
आजची सकाळ पण उदास भकास
कसे  जगत आलो आजपर्यंत
कुठे गेला काल परवाचा उल्हास
          गेले कालचे  काळे दिवस
          आज का काळा करतोय मी
          थकून गेलोय माझा मीच
           हे का गोळा करतोय मी
का अडलंय जगणं माझा
का कालचेच संधर्भ लावले जातायेत
का नवीन सुरुवात होत नाहीये
का मन अजूनही वळत नाहीये
           का मी आज एवढा प्रौढ भासतोय
           का मी काळाच्या पुढे धावतोय
           की मी काळाच्या फासात  आहे
           काळ मला मागे खेचतोय
का मी मनसोक्त रडत नाहीये
का  मी सगळं दाबून ठेवलंय
सगळी उत्तरं सापडूनही
मी प्रश्नात का लोळत  राहिलोय


- रोहित

केदार मेहेंदळे

aaj tar kmala kelit rohitji...... mast kavita taklyayet....... lihit rha asech..... khup chan.

Rohit Dhage


Sanket Shinde

#3
sundar kavita... hi kavita ekach sandesh deto to mhanje...

Payal gurav


aaj tar kmala kelit rohitji...... mast kavita taklyayet....... lihit rha asech..... khup chan.

Rohit Dhage

thanks Sanket ani Payal... :)
tuzi kavita chan hoti barka sanket.. mast

Sanket Shinde

धन्यवाद रोहित....!

आवडली तर हि पण वाच... नसेन मी जेव्हा...