🌻 कर्म योग की अमृतवाणी 🌻 श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्लोक 10-🙏🕉️🔥🌿🕊️🌟🐮

Started by Atul Kaviraje, November 18, 2025, 08:24:16 PM

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Atul Kaviraje

तीसरा अध्यायः कर्मयोग-श्रीमद्भगवदगीता-

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिवष्टकामधुक्।।10।।

🌻 कर्म योग की अमृतवाणी 🌻

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्लोक 10 पर आधारित एक दीर्घ मराठी काव्य)

मूल श्लोक:

सहयज्ञ: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रशस्तिष्यध्वमेषा वोऽस्तिविष्टकामधुक्।।10।।

1. आरंभ (सृष्टि का संकल्प)

प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की,
मनुष्य और प्रकृति को यज्ञ का आधार दिया।

अर्थ: जब सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा (प्रजापति) ने इस सृष्टि की रचना की, तो उन्होंने यज्ञ के संकल्प (आधार प्रदान करके) से मनुष्य (प्रजा) को स्थापित किया।

2. देवताओं का वचन

जन्म के साथ एक पवित्र वचन दिया गया था,
'यज्ञ करने' की आज्ञा कर्म के बंधन के समान है।

अर्थ: ब्रह्मा ने मनुष्य को जन्म देते ही यह पवित्र वचन दिया था कि तुम 'यज्ञ' करो। यही कर्म का मूल आदेश है, जो व्यक्ति को बाँधता है (अर्थात् इसे कर्तव्य मानकर स्वीकार करना पड़ता है)।

3. यज्ञ द्वारा विकास

'अनेन प्रशस्तिष्यध्वम्' तब तुम विकसित होगे,
तुम्हें जीवन में समृद्धि, सुख और शांति प्राप्त होगी।

अर्थ: 'इस यज्ञ से ही (सृष्टि के कार्य को व्यवस्थित रखकर) तुम विकसित होगे' (यह ब्रह्मा का आदेश है)। जब तुम यज्ञ करोगे, तब तुम्हारे जीवन में समृद्धि, सुख और शांति का संचार होगा।

4. यज्ञ का स्वरूप

यज्ञ केवल अग्नि में आहुति देना नहीं है,
निःस्वार्थ सेवा, त्याग ही वास्तविक कर्म की गति है।

अर्थ: यज्ञ केवल अग्नि में आहुति देना नहीं है। बल्कि निःस्वार्थ भाव से की गई सेवा, समर्पण और त्याग, यही वास्तविक कर्म (यज्ञ) की सही दिशा है।

5. कामधेनु का वरदान

'इष्टकामधुक' कामधेनु का वरदान है,
जो कामनाओं की पूर्ति करता है, वही पवित्र सेतु है।

अर्थ: यह 'यज्ञ' कामधेनु (इष्टकामधुक) के समान है जो आपको मनोवांछित वस्तुएँ प्रदान करता है। यह यज्ञ एक पवित्र सेतु है जो आपकी सभी शुभ कामनाओं को पूर्ण करता है और आपको दिव्यता की ओर ले जाता है।

6. समर्पण

लेना और देना सृष्टि का चक्र है,
समर्पणपूर्वक जीवन जीना ही सभी सुखों का सार है।

अर्थ: प्रकृति से कुछ ग्रहण करना और बदले में उसे समाज को देना ही सृष्टि का शाश्वत चक्र है। इस समर्पण भाव के साथ जीवन जीने में सभी सुख समाहित हैं।

7. परमार्थ सार

अपने स्वधर्म को ध्यान में रखते हुए और ईश्वर का ध्यान करते हुए अपना कर्म करो,
जीवन का कल्याण निस्वार्थ त्याग में निहित है।

अर्थ: ईश्वर का स्मरण करते हुए अपना नियत कर्म (स्वधर्म) करो। क्योंकि मानव जीवन का वास्तविक कल्याण (मोक्ष) निःस्वार्थ भाव से किए गए त्यागपूर्ण कर्म में निहित है।

इमोजी सारांश:

🙏🕉�🔥🌿🕊�🌟🐮🌻

--अतुल परब
--दिनांक-16.11.2025-रविवार.     
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